Sunday 9 June 2013



"मुक्ति का चादर "

मंथर- मंथर  चलते हो,
जैसे  गगन में बदली
लिए नीर का गागर.

मद्धम मद्धम हँसते हो,
जैसे उपवन में कली
लिए गंध का सागर.

चंचल-चंचल उड़ते हो,
जैसे पवन में तितली
लिए पराग का पातर.

सिन्धु  -सिन्धु  बहते हो,
जैसे जल में मछली 
लिए मुक्ति का चादर.

(C) राम किशोर उपाध्याय 

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