Saturday, 29 June 2013

Unwaan " Kafan"

ख्वाहिशों का मिटा देना खुद ही कफ़न ओढ़ लेना है  
फर्क क्या पड़ा कब्र  में मिट्टी आज दी या बरसों बाद 

तुम्हारा बजूद     है तुम्हारे भीतर की खुशबू  
हिरन की कस्तूरी के पीछे कब  तक भागोगे  

घर पे जब तेज़ बारिश ने मुझे रिझाया
खिडकी पे भीगे कबूतर ने खूब रुलाया

हम उनकी यादों को कोठरी बंद करके बैठ गए थे 
किसी ने बताया वहां पीछे  खिड़की भी खुलती  है    

राम किशोर उपाध्याय 

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