Monday 11 November 2013

कल्पना
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ये कल्पना ....
भी बड़ी अजीब होती हैं
बेखौफ ,बेलाग और बेहया
ना समय देखती
ना जगह देखती
ना सामने कौन हैं
ना दाएं बांयें कौन हैं
बस आ जाती हैं
बिन पैरों के
बिन पंखों के
और चलकर
एक घरौंदा
एक नीड के लिए
एक बया की तरह
बस बुनती रहती हैं
समय को
झंझावातों को
निरंतर चुनौती देती हुई.......
कल्पना ..........................

रामकिशोर उपाध्याय 

3 comments:

  1. कल्पना न हो तो जीवन में आशा नहीं रहती ... जरूरी है ये ...

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  2. धन्यवाद, दिगम्बर नासवा जी ....सराहना के लिए ..........

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  3. कल्पना ही है जो व्यक्ति के अधूरेपन को पूरा कराती है .... सुन्दर सजीव कल्पना
    बधाई हो उत्तम सृजन के लिए !!!!!!

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