Tuesday, 5 November 2013


kuch bikhre phool..
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साहिल से मौजें टकराती तो हैं, 
शजरों में हवाएं लहराती तो हैं, 
जुल्म ख़त्म ना हो बेशक*मेरी,
किले से आवाजें टकराती तो हैं. 



कविता लोक में एक लघु प्रयास --एक मुक्तक 
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दर्द जब भी उभरा,
हद तक ही उभरा,
शिकवा क्या*करे, 
वो दिल से*उभरा. 

रामकिशोर उपाध्याय
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खुदा मिला जन्नत के दरवाजे पर,
वो भी मेरी तरह खामोश तन्हा था.


दिवाली के बाद 
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के बाती जल गयी और जल गया सब तेल,
माटी की काया का माटी में मिलने का खेल.

जबतक तम हैं छाया दिवाली का ये सन्देश,
के मिट्टी,बाती और तेल का होता रहेगा मेल. 

रामकिशोर उपाध्याय 
04.11.2013

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