"शीर्षक अभिव्यक्ति --- 81" (चित्र)- एकल काव्य पाठ –एक साहित्य मंच में प्रस्तुत एक लघु प्रयास
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“मैं विदेह हूँ”
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तुमने बड़ी ही
होशियारी से एक बाड़ लगाया
कटीलें नुकीले तारो का............
मेरी आज़ादी को
कैद करने की व्यवस्था का अच्छा ताना-बाना
अरे ! आप भी औरों जैसे निकले......
तुमने भी वही पाश फैंका शकुनी की तरह
पर ये पाश पहले भी पिट चुके हैं
हस्तिनापुर में द्वापर में
शायद भान नहीं हैं
कि इस बाड़ ने द्वार रोका हैं
आशा के झरोखे अभी हैं
मेरा स्थूल बंधन में हो सकता हैं
मेरा सूक्ष्म तो नहीं ............
जो पवन की तरह उन्मुक्त हैं
पावक की तरह उर्ध्व हैं
आकाश की तरह व्यापक हैं
मैं ,,,,
कैद कैसे हो सकता हूँ
यह बात ऊपरवाला भी जानता हैं
तुम्हारे आकलन व्यर्थ
तुम्हारे प्रयास भी व्यर्थ
मैं देह भी हैं ...
व्याकुलता और झंझावातों में
जीने की आशा
और आस्था के साथ
इस बाड़ के पार
मैं विदेह हूँ.............
रामकिशोर उपाध्याय
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