Tuesday, 14 May 2013

बस तुम ही तो हो 

तुम नभ का वो विस्तार हो
जहाँ दृष्टि भी दृष्टि को खोजती हो
अवनि का वो कोना हो
जहाँ सूर्य की किरण भी
निशा में  अवलंब तलाशती हो
घने घने पेड़ों वो लम्बी छाया हो
जो पेड़ की जड़ का ठौर पूछती हो
भावनाओं का गहरा सागर हो
जो किश्तियाँ डुबोता नहीं, निगलता हो
लालित्य का वह प्रतीक हो
जो रस ,साहित्य की व्यक्त विधा की परे हो 
वो मधुर गीत हो जो
संगीत के बंधान से मुक्त
झरने सा प्रवाहमान
वो विज्ञान हो जो
लौकिक ,अलौकिक और पारलौकिक
मष्तिस्क के भेद से भिन्न
तुम
छाया हो,
प्रतिच्छाया हो
या माया हो
मुझको छलने वाली

पर माया ही क्यूँ हो ?
मष्तिस्क पर पड़ा आवरण क्यों नहीं हो ?
धुंद की साड़ी में लिपटी भ्रम की छाया ही क्यूँ हो ?
द्वन्द मी सिमटी प्रतिच्छाया सी
धूप में खिलती चांदनी की शीतलता का
मादक बिम्ब क्यों नहीं हो?

तुम  जो कुछ  भी  हो या नहीं हो
क्या अंतर पड़ता है,
जब तुम सामने खड़ी हो
तुम मेरे चक्षु -दर्पण में
बाल संवार रही हो
और मै  बिना पलक झपकाए
कई रात से सोया नहीं हूँ
और बार-बार कंघी उठाकर तुम्हे दे रहा हूँ .......................

राम किशोर उपाध्याय 




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