Wednesday, 22 May 2013

आज भी ,,,,,,,,,,,,,,,,,,


गर्मी
और लू के थपेड़े
तरबतर कमीज
नख से शिख तक
एक  कोठरी में बिन पंखे के
प्रसन्न पोंछते रहे स्वेद के बिन्दू
सर्द हवाओं का   तीक्ष्ण प्रहार
हड्डीयों तक प्रवेश
रिमझिम या फिर मूसलाधार वर्षा
पत्नी ने कहा फिर भी रुके  नहीं
कदम ---
बस बढ़ते ही गए आगे ही आगे ही
कई बरसों से यही हो रहा है
आज भी  ,,,,,,,,,,,,,,,

गीली-गीली लकड़ी पर फुकनी से
फूंक मारते -मारते चौके के चूल्हे से
केरोसिन का स्टोव
फिर एल .पी .गैस के  चूल्हे तक
बदला नहीं तो तवा ,,,,,,,,,,
हाथ वैसे ही जलते है पत्नी के
पहले मेरे लिए
और अब मेरे बच्चों के लिए पकाते- पकाते  खाना
आज भी ,,,,,,,,,,,,,,,,,,

1 comment:

  1. बहुत सुन्दर , मर्मस्पर्शी

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