Friday, 20 September 2013

परदा 
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परदा उठता हैं 
परदा गिरता हैं 
इन दोनों के बीच लोक चलता हैं 
लोग चलते हैं 

चलते -चलते .......
लोग बेपरदा होते हैं 
गुनाह जब बापरदा होते हैं

बस इसी बीच
कुछ परदे पुराने हो जाते हैं
कुछ फट जाते हैं
कुछ बदल दिए जाते हैं
कुछ परदे छोटे होते हैं
कुछ रंगमंच जैसे बड़े होते हैं
कुछ रंगीन परदे होते हैं
कुछ महीन परदे होते हैं

यहाँ सब कुछ होता हैं
बस एक परदे में होता हैं
प्रेम
भोग,आनंद
हिंसा ,अपराध
भोजन , भजन
यहाँ हर किसी कार्य को परदा चाहिए
बेपरदा कोई नहीं हैं यहाँ
मनुष्य तो क्या ......
प्रकृति भी नहीं .......

रामकिशोर उपाध्याय

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