Tuesday 10 September 2013

मुज़फ्फरनगर में हाल में हुए हिन्दू मुस्लिम दंगों ने मुझे बहुत आहत किया हैं. क्यूँ हम एक दुसरे को मरने पे तुले हैं. क्या प्राप्त कर रहे हैं इस हिंसा से. हाँ, मिले हैं बस कुछ बिलखते बच्चे,विधवा माँ और बहने और माता -पिता के साये से महरूम युवा और युवतियां। किसी बेटी की शादी का सामान जल गया,किसी के सपने टूट गए और कई खुद ही टूट गए. पीछे छोड़ गए एक शून्य जो कभी नहीं भरने वाला हैं. क्या हमारी अंतरात्मा हमें कुछ सोचने के लिए विवश नहीं करती हैं ? मेरी यह पीड़ा कुछ यूँ झलकी हैं.


तेरा मेरा घर जला हैं
-----------------------

तेरा घर जला या मेरा घर जला हैं ,
ये महज हादसा नहीं, ज़लज़ला हैं।

रोता हैं राम और बिलखता रहीम,
ये कैसा जूनून ये कैसा बलबला हैं।

ऐसी क्या हैं नफरतें और अदावत,
के भाई को मारने भाई निकला हैं।

कहीं पे माँ मरी कहीं बाप खो गया,
के बच्चा  बच्चा अनाथ हो चला हैं।

बुझे जिनके चिराग,करे कैसे माफ़,
के ये क़त्ल तुम्हारी ही तो खता हैं।

बंद करो अब खंजर और सियासत,
के बहुत खून इंसानियत का बहा हैं।

रामकिशोर उपाध्याय
10.9.2013

No comments:

Post a Comment