Wednesday 19 April 2017

दो बूँद का सागर


अनिल हूँ मैं ...
मुझे तुम्हारी फैक्ट्री से निकलते
जहरीले धुएं से क्या काम
मुझे तो तोड़ देनी है ...
नफरत और जलन  उगलती
सभी अयाचित चिमनियाँ
*
अनल हूँ मैं ....
मुझे तुम्हारे घर के बाहर लगे
झाड़-फूँस से क्या काम
मुझे तो जला देनी हैं
दीमक लगी कमजोर
सभी अवांछित दरवाजों की चौखटें,खिड़कियाँ
*
सलिल हूँ मैं
बहा ले जायेगा तुम्हारे भीतर का लावा
घुल जायेगी जहरीली हवा
मेरे विशाल वक्षस्थल में
जहाँ उद्धत है समेटने को शुष्क सरिताएँ
क्या तुम्हारे दो नयन हो सकते हैं वो बदलियाँ
तुम्हारे ही लिए
जो मुझे दे सके
दो बूंद का सागर ....
*
रामकिशोर उपाध्याय

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