Saturday 13 June 2020

संस्मरण - मेरठ (आरंभिक जीवन भाग -1 )


जब मुझे रहने के लिए गाय का तबेला दिखाया गया
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एक जमाना वो था जब फर्स्ट डिविजन आना बहुत बड़ी होती थी | आज तो सौ प्रतिशत अंक भी आ जाये तो लोग प्रतिक्रिया नहीं करते | उसी युग के सन 1970 में जब आठवीं की बोर्ड की परीक्षा फर्स्ट डिवीजन में पास की तो घर परिवार के लोग बहुत प्रसन्न हुए | और हम एक पढ़ाकू बालक के रूप में स्थापित हो गये | अपनी बोर्ड की मार्कशीट लेकर जब कुंद-कुंद जैन इंटर कॉलेज,खतौली गये तो हमें उन्होंने तुरंत ही नवीं कक्षा में दाखिला देदिया | मेरा छठी से आठवीं तक का सहपाठी Chaman Singh जो पढने में मुझसे भी अच्छा था उसने भी वहीँ एडमिशन ले लिया। दो पुराने मित्र नए स्कूल में साथ पढेंगे ,यह एक सुखद अनुभूति हम दोनों को हो रही थी | स्कूल का नया सत्र शुरू होने में थोडा समय था क्योंकि उस समय दाखिले चल रहे थे |मेरे पिता जी के एक अभिन्न मित्र थे जिन्हें घर में हम लोग धीमान साहेब कहते थे ,| धीमान साहेब उस समय मेरठ के इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल (जिला शिक्षा अधिकारी) थे । धीमान साहेब को हम बच्चों की उन्नति की चिंता बहुत करते थे,विशेषकर मेरी। इसी बीच पिताजी उनसे मिलने गए तो जाते ही उन्होंने मेरा रिजल्ट और नवी में कहाँ एडमिशन कराया ,पूछा | मेरे कुंद कुंद जैन इंटर कॉलेज,खतौली में दाखिले के विषय में पिताजी ने बता दिया। वो नाराज होकर बोले ,मास्साब आपने रामकिशोर को वहाँ क्यों एडमिट किया। वह जीआईसी(राजकीय इंटरमीडिएट कालेज ) ,मेरठ में पढ़ेगा। कहकर उन्होंने अपने चपरासी को जीआईसी से दाखिले का फार्म मंगवाया और भरकर भिजवा भी दिया। अरे साहेव,वहाँ तो प्रवेश के लिए इंग्लिश ,मैथ्स ओर साइंस में टेस्ट देना पड़ा । वैसे तो निश्चिन्त था कि मेरी तीन विषयों में डिस्टिंक्शन है ,प्रवेश हो ही जायेगा ,फिर भी परीक्षा ही परीक्षा होती है |ऊंट न जाने किस करवट बैठ जाये | नियत तिथि पर सूचि लगी | सूची में नाम देखने वालों की भीड़ उमड़ी थी। आखिर थोड़ी धक्का मुक्की के बाद चयनित छात्रों की सूची में मेरा नाम बारहवें नम्बर पर पढने को मिल ही गया। जीआईसी उस ज़माने का प्रीमियर स्कूल हुआ करता था | मैं डॉक्टर बनना चाहता था इसलिये हिंदी इंग्लिश मैथ्स ,साइंस और बायोलॉजी विषय लिए । डॉक्टर वाला स्टेथेस्कोप गले में डालने की बड़ी तमन्ना थी। इंसानियत की सेवा का जज्बा था उस समय मन में। स्कूल का समय प्रातः सात बजे का था,इसलिये रोज ट्रेन से समय पर नहीं आ सकता था।अब प्रश्न था कि शहर में रहे तो कहाँ रहे ? जीआईसी में हॉस्टल तो था किन्तु उसकी फीस हमारे हिसाब से अधिक थी जिसे वहन करने में पिताजी असमर्थ थे | कमरा अलग लेकर रहना भी भारी खर्चे का सबब था | पिताजी को याद आया कि सुभाष नगर में रहने वाले एक रिश्तेदार शिवकुमार शर्मा जी रहते है तो उनसे बात की। उन्होंने कहा कोई बात नहीं । आपका बच्चा मेरा ही बच्चा ही है। पिताजी ने उनसे मेरी रहने की जगह दिखाने के लिए कहा। तो वो हम दोनों को अपने घर के अलग किन्तु निकट ही एक जगह ले गए । उन्होंने आहाते का दरवाजा खोला तो वह उनकी गाय का तबेला था | उनकी गाय बंधी हुई नज़र आई और कमरा वगैरा कोई था नहीं । वो कहने लगे कि घर पर हमारे रहने के लिए ही जगह कम पड़ती है। लड़का यहीं इस गाय वाले कमरे में एक तरफ खाट ड़ालकर रह लेगा। वहाँ के पवित्र वातावरण में गोबर की गंध घुली हुई थी। मूत्र की बदबू आ रही थी | मैंने तुरंत पिताजी के कान में कहा कि यहाँ मैं कैसे रहूँगा | गाय कभी गोबर करेगी तो कभी पेशाब से भीजी पूंछ से मक्खी उड़ाएगी तो सब मेरे ऊपर ही आएगा । मैं यहाँ बिलकुल नहीं रह सकता। पिताजी ने शिवकुमार शर्मा जी से कहा कि ठीक है। हम जल्दी ही सामान ले आयेंगे | कहकर हम घर आ गए,किन्तु वहां गए नहीं |
क्रमश:
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Ramkishore Upadhyay

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