Tuesday 19 August 2014

मुंडेर पर ....













मन पुलकित हो उठा
लगा के वीणा के सोये तार जग गए
जब उसने कहा
तुम्हे पहले भी कहीं देखा है
पहली ही मुलाकात में
उस जगह घने पेड़ थे
छाँव थी घनी
पीपल की चंचल  पत्तियों से
सूरज लुकछिपकर
अपने दृग फाड़े देख रहा था .....
यह दृश्य ...अपूर्व
पर वह बोलती ही जा रही थी
आकाश सिंदूरी हो चला
पुरुष ने सोचा के योषा की आँखों में
दिवस ढलने का प्रभाव परिलक्षित हो रहा है
योषा की आँखों में लाल डोरे तैरने लगे थे
वह कहने लगी
जाने से पूर्व कुछ कहोगे नहीं
क्या कहूँ ?
जब -जब तुम दर्पण देखोगी अपलक
एक छवि निर्बाध वार्ता करेगी
और होगा एक निवेदन
जिसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है
और तुम खुद ही कह उठोगी
के ये निगोड़ी आंखे बहुत बोलती है क्यों ?
परिंदों अपने घोंसले को लौटने लगे
और शोर बढ़ने लगा
मुंडेर से उतरकर दो साए आंगन की ओर बढ़ने लगे थे .....
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रामकिशोर उपाध्याय 

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