कहीं पर रोना
कहीं पर धोना
कहीं पर जलती कंचन काया
फिर भी लगता परचम है फहराया
लिए हुए सब बाजू में तुरुप का पत्ता
कहीं पर शान ,कहीं पर ताकत और दिखती कहीं पर सत्ता
कहीं पर उड़ता
कहीं पर गिरता
कहीं धूप तो कहीं गहरी धुँध का साया
फिर भी कहते चमन में फैली सुगंध की माया
जिधर भी देखो वन को निगल रही है अनल
घृणा और लोभ की उग रही है फसल
जन गण और मन में बढती कटुता
मिट रही है प्रेम की मृदुता
कुचल रही जनता को जनता
क्या ऐसे ही देश है बनता ?
सोचो यारों
मिलकर संग जिओ प्यारों
देखों उतर रहे नभ से यहाँ फाख्ता और कपोत
आओ मिलकर जलाये एक प्रेम की और एक शांति की ज्योत .............
.....
*
रामकिशोर उपाध्याय
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (18-06-2016) को "वाह री ज़िन्दगी" (चर्चा अंक-2377) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आदरणीय हार्दिक आभार
ReplyDeleteसराहना के लिए हार्दिक आभार
ReplyDelete