Wednesday, 3 June 2015

एक ग़ज़ल

बहर - बहरे मुतकारिब मुसमन सालिम =१२ २, १ २ २, १ २ २ , १ २ २
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कहाँ से चले थे कहाँ आ गए तुम,
उठे फर्श से अर्श पर छा गए तुम |
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न चांदी गिरी और बरसा न सोना ,
खजाना कहाँ से नया पा गए तुम |2
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चली जब हवा बाग में इक सुहानी ,
गुलों पर नशा बन गज़ब ढा गए तुम |3*
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हमें प्यार क्या है पता तक नहीं था,
इशारों इशारों गुल खिला गए तुम |4
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तपिश जब बढ़ी जल उठे कुछ शरारे ,
अगन को बुझाने नज़र आ गए तुम |5
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नयन पग निहारे,अधर तप्त मादक,
फ़िदा हो गए हम,अमां भा गए तुम |6
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न बहके कदम शोहरत में जरा भी,
धरा से गगन तक सभी पा गए तुम |7
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रामकिशोर उपाध्याय
२९ मई २०१५ -पूर्ण

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