Sunday 22 December 2013

मुक्तक और चंद अशआर

और भी ख़त हैं मेरे इजहार-ए-गम के आलावा,
ये और बात हैं कि उन्हें मैंने भेजा ही नहीं तुझे.

के कैद हो गयी ख्वाहिशे उसी लिफाफे में आज,
बरसों पहले भेजा था जिसमें तूने पहला पैगाम.

मैं एकबार सोच भी लूँ तू नहीं हैं गुनाहगार,
मगर तेरी फितरत से ये भरोसा होता नहीं.

ऐ खुदा !!!!!

जबतक नहीं हैं*मेरे घर में एक अदद झाड़ू,
तबतक तेरा पथ अपनी पलकों से ही बुहारु.

वो अपनी वफा की कसमें खाकर यकीं दिलाते रहे,
किसी के जुल्मों की दास्ताँ हमारे होठों पे ना आई।

के रात काफी ढल चुकी तुम सितारे बीन लो, 
आसमां को आज मैंने महखाने जाते देखा हैं.

लोग हो इमानदार और चोर कहे करो मुझे गिरफ्तार,
भैयाजी तभी मैं बनाऊंगा यहाँ इस दिल्ली में सरकार.

के इतना मत भी रुला मुझे कि अश्क रूठ जाये,
ये झील आँखों की मुझसे यूँही सुखाई ना जाएगी.

के तुम ना आये मुझे इस बात का शिकवा नहीं,
मगर जो गुल मुरझा गये हैं उन्हें क्या जवाब दे.

तूने देखी कशिश मेरी,मैंने तेरी वफ़ा,
किनारे हैं तो चलना होगा साथ साथ.

सोचते हैं मुझे चाँद और सितारे ही चाहिए,गफ़लत में हैं वो,
जमीन से निकला बिरवा हूँ,आसमान देखना मेरी आदत हैं.

जब मिटटी ने हंसकर कहा मिलते हैं सब मुझमे,
सर पे अपने खाक लिए घूमता हूँ उस दिन से मैं.

जब रोते-रोते हिज्र में मैं अश्क पी गया,
वो कहने लगे चढ़ गया शराब का खुमार

कल यूँ ही जब मैं मयकदा पंहुचा,
बोतलें भरी थी और रिंद बेहोश थे

ख्वाहिशें इतनी बा-वफ़ा होंगी नहीं था मालूम,
कि आखिरी साँस तक मेरे जिस्म को कुरेदेंगी.

के इन बड़े बड़े ठन्डे कमरों से मुझे क्या लेना देना,,,मेरे मुसाहिब, 
आम आदमी हूँ धूप से झुलसता,मेरे साथ जमीन पे बैठकर सोचो.


उन्होंने उनकी खराब तबियत का हाल ऐसा पूछा,
कि रोते-रोते अपनी ही दास्तान-ए-दर्द सुना गए.

के आज फिर सूरज ने दस्तक दी और हो गया सवेरा,
उठे तो देखा तकिये के नीचे रखा था ख़त लिखा तेरा. 

मैं हमसफ़र तो नहीं हो सका तेरा,
पर हर सफ़र में साथ हैं हाथ मेरा.

बेशक हमतुम दोपहर में मिले हो,
ना ढले मुहब्बत का जज्बात मेरा.

जीवन में मेरे जब पसरा हो अँधेरा,
तू 
मैं हमसफ़र तो नहीं हो सका तेरा,


पर हर सफ़र में साथ हैं हाथ मेरा.
सबा बन जगा देना सोया हैं सवेरा. 

के मैं ढूंढता रहा अल्फाज़ उस शख्स के लिए,
जो खुद अपनी तस्वीर में कैद होके रह गया.



के उनकी निगाह-ए-करम का मैं शुक्रगुज़ार हूँ,
वो देखते हैं तो अहसास होता हैं एक वज़ूद का.

एकके कल गुलाब को हँसते पाया और आज किसी का शबाब,
ये खुदा का ही कमाल था जो अलग-अलग रूप में निखरा.

एक प्रयास 
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झील में भी उबाल हैं 
यूँ तेरा ही*ख़याल हैं

लहरों की तो मौज हैं, 
बस साहिल बेहाल हैं

गर्दिशों हो विदा*यहाँ,
खुशियों का धमाल हैं.

उत्तर सभी हैं*पुराने,
अब ये*नए सवाल हैं. 


के बाती जल गयी और जल गया सब तेल,
माटी की काया का माटी में मिलने का खेल.

जबतक तम हैं छाया दिवाली का ये सन्देश,
के मिट्टी,बाती और तेल का होता रहेगा मेल. 


ये जरुरी तो नहीं कि चराग जले और दिवाली हो,
कभी खुद को भी जलना पड़ता हैं रौशनी के लिए. 




 मुक्तक : जिसे मेरे अनन्य मित्र ने अनुमोदित किया हैं .
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किश्ती ना थी मुकद्दर में तो नाख़ुदा से क्या गिला,
जब डूबना बदा था तो बेरहम मौज़ों से क्या गिला,
एक हम ही नहीं हुए हैं हुस्न की जुल्मत के शिकार,
मोहब्बत में फ़ना होने का हैं यह पुराना सिलसिला.

जब वो बज्म से उठने ही लगे तो हम क्या टोकते,
जब हाथ छुड़ाके चलने ही लगे तो हम क्या रोकते,
सदियों से अपने उस रिश्ते का हवाला दिया उनको,
फिर भी कोई बात न बन सकी तो हम क्या बोलते. 

याद 
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वो कल की याद दबाये बस मैं चलता जाता हूँ,
हुजूम खडा, परन्तु पथ पर तुमको ही पाता हूँ,
इन भरी-भरी आँखों के सागर को क्या कहिये,
तुम जाने को कहती ये झट से छलक जाता हैं.

एक चक्रपाणि ,एक हैं त्रिशूलधारी,
एक ओढरदानी,तो वही गदाधारी,
एक हैं विराजता कमल के दल पर,
भिन्न रूप, जनक,पालक व संहारी.

कहीं आप भी मेरी तरह गाफ़िल तो नहीं,
भंवर में उलझे शख्स का साहिल तो नहीं, 
कि जिसे आप बड़ा मासूम समझ रहे हो,
कहीं वही तुम्हारा हसीन क़ातिल तो नहीं.

आओं हम कुछ धूप गुनगुना ले, 
साये लम्बे हो जाये इससे पहले, 
इससे पहले ठण्ड बढ़ जाये यहाँ,
चाँद को दूल्हा बना घर बुला ले. 


र राह पर तुम खड़े हों बाहे फैलाये,
जैसे हो बंधन में ये समस्त दिशायें,
नूतन सा उत्साह भरा धमनियों में,
मिलन का संगीत बजाती हैं शिरायें. 


के आज बरसों बाद नहाके लटें सुलझाई, 
फिर बिंदी और हथेली पर मेहंदी*लगाई,
चूड़ी, कंगन, हार, पांव में पायल सजाई,
छोड़े ना आईना,उन्हें मेरी चिट्ठी जो आई. 



फिर भी दिवाली हैं?
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जब माता तेरे घर में नहीं कोई कमी हैं,
अभी भी हर इंसान की आंख में नमी हैं,
यहाँ दौलत के अम्बार लगे हैं फिर क्यूँ,
हाथ को काम भूखे को रोटी की कमी हैं.


दीवाली मुबारक 
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के मुबारक हो !मुबारक हो !सुहानी दीवाली,
हर घर हो जगमग दीपों की हो सजी थाली, 
देश है भारत हमारा,करनी हैं हमें रखवाली, 
हो मुबारक हिन्दू को, मुस्लिम को दीवाली।



के दिल में रखा*खाली एक कोना,
उसी में वक़्त बेवक्त हँसना रोना,
नदी जैसी खुशी को वहीँ डुबो देना, 
उसी में समुद्र जैसे दुःख को धोना. 



एक मैं और एक तू 
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मेरी नज़र में बसी एक तू ही तो हैं,
मेरी डगर में खड़ी एक तू ही तो हैं,
इश्क की अदालत मे गुनाहगार दो, 

बस एक मैं हूँ और एक तू ही तो हैं 

कहता काम नहीं हैं सताता,
उसको राम नाम ही भाता,
रहता हैं धुन में,पर अपना,
नाम वो कामदेव बतलाता.

हम चुपचाप बैठे रहे मगर हलाल हो गए,
वो बेरंग आये थे यहाँ मगर लाल हो गए,
नहीं समझ सका मैं कैसे थे वो तिजारती, 
जो आये खाली जेब पर मालामाल हो गए.

एक मुक्तक 
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खौफ़ मत खा बस बढ़ चल,
ठोकर खाकर भी जा संभल,
मंजिल को पाना हैं अगर तो 
राह के काँटों को तू दे कुचल.


2 comments:

  1. वाह ... सभी शेर लाजवाब .. अलग अंदाज़ के उम्दा ....

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  2. दिगम्बर नासवा जी,सराहना के लिये हृदयतल से आभार । कृपया अपना घर का पता दे,अपना काव्य संग्रह भेजना चाहता हूँ।

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