Thursday, 19 December 2013

अन्दर की प्यास 
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बूंद हैं 
घट हैं 
ताल हैं 
झरना हैं 
नदी हैं 
सागर हैं 
कहीं वह खारा हैं 
कहीं वह नमकीन हैं 
कहीं मीठा हैं
पीने योग्य न भी हो
बना लेते हैं
पी रहे हैं हम सब
सुबह और शाम
आज से नहीं सदियों से
कभी वह धरा से निकलता
कभी बादलों से गिरता
कभी आँखों से भी बहता
कभी उसके लिए झगड़ता
कभी मर भी जाता उसके लिए
अन्दर बाहर
पानी ही पानी हैं
फिर भी तृषित हैं
मानव और उसका मन
बुझाने को मारा मारा फिरता
किसी का चरण चुम्बन करता
किसी के आगे नतमस्तक होता
पशु भी बुझा लेता हैं
बाहर की प्यास ..
परन्तु
ये अन्दर की प्यास भी
बड़ी अजीब हैं ….

रामकिशोर उपाध्याय

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