Wednesday 21 January 2015

क्या अंतर पड़ता है

क्या अंतर पड़ता है...तुम क्या हो 
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तुम ...
नभ का विस्तार हो
अवनि की बड़ी सी चादर हो
किसी पीर की दरगाह पर जैसे क्षितिज तक फैली
सागर की उद्दाम लहरे हो
जो किसी किश्ती को खूब हिचकोले खिलाती हो
या झींगे और मछलियों की तरह जल बिन व्याकुल हो
ह्रदय को चोरी से मन के सीप में छिपा लेती हो
भावनाओं को तरंगो में लपेटकर
अनकहे शब्दों में व्यक्त कर देती हो
छोटे से वृक्ष की लम्बी छाया हो
ताल में खिला कँवल हो
सूर्य की किरणों में दिखा चंद्रमा हो
मोहक चांदनी में खिली तेज धूप हो
साहित्यिक अभिव्यक्ति से परे
लालित्य का अनुपम भंडार हो
किसी विशेषण से अधिक विशेष
अलभ्य सौदर्य को चिढाता श्रृगार हो
वो तुम ही तो हो .............
तुम कभी कहती हो कि
कभी बताते माया हो ,काया हो
लगती छाया हो ,प्रतिच्छाया हो
लौकिक ,पारलौकिक और अलौकिक हो
स्थूल और सूक्ष्म की मर्यादा से विहीन हो
तुम ...
दिग्दिगंत तक प्रसारित सुगंध हो
जीवन से जीवन का अनुबंध हो
क्या अंतर पड़ता है ,,तुम क्या हो ?
*
मेरे लिए बस 'तुम' हो और यही क्या कम है !!!!!!!!!!!!!!!!!!
***
रामकिशोर उपाध्याय

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