Saturday, 29 June 2013

Unwaan " Qarz" - "Main- Hoo- Na"

kis  qarz ka hisab kitab likhta yaha maiN ,
Maa ke baad koi  aur  naam yad hi nahi aya.

 किस क़र्ज़ का हिसाब किताब रखता यहाँ मैं 
 माँ के बाद कोई और नाम याद ही नहीं आया  

राम किशोर उपाध्याय 
Unwaan " Kafan"

ख्वाहिशों का मिटा देना खुद ही कफ़न ओढ़ लेना है  
फर्क क्या पड़ा कब्र  में मिट्टी आज दी या बरसों बाद 

तुम्हारा बजूद     है तुम्हारे भीतर की खुशबू  
हिरन की कस्तूरी के पीछे कब  तक भागोगे  

घर पे जब तेज़ बारिश ने मुझे रिझाया
खिडकी पे भीगे कबूतर ने खूब रुलाया

हम उनकी यादों को कोठरी बंद करके बैठ गए थे 
किसी ने बताया वहां पीछे  खिड़की भी खुलती  है    

राम किशोर उपाध्याय 

Sunday, 23 June 2013


एक टीस (उत्तराखंड त्रासदी की )


वो आयी थी कुछ इस तरह क़यामत बनकर
एक नहीं सौ बार मरें हम   बयानात सुनकर
कांप  जाती थी रूह अपनी वो मंजर देखकर
एक तू ही खड़ा रह गया सिर्फ गवाह  बनकर

कोई कहता था कि आया था अजब सैलाब
कोई कहता था कि गुज़र गया एक   गर्दाब
मिट गए कई आशियाने टूटे गए कई ख्वाब
अब बस रह गयी जिंदगी मुसीबत  बनकर

कोई अपनों के हाथ से छुटकर चला गया
कोई  नाराज़ लहरों से लड़ता ही चला गया
कोई पहाड़ पे भूख  प्यास से दम तोड़ गया
हर हादसा रह गया बस एक सवाल बनकर 
  
उजड़े आशियाने तो चलो फिर बन जायेंगे
जो चले छोड़  बीच में वो कहाँ अब आएंगे
एक दिन आँखों से आंसू भी सूख  जायेंगे
गुजरे लम्हे तो जरुर उभरेंगे टीस बनकर      

रामकिशोर उपाध्याय
23-6-2013


Friday, 21 June 2013


एक  मुक्तक 

वो  टूट गया सिलसिला 
जब कली से फूल खिला
तन मन के टूटे तटबंध 
जब नदी से सागर मिला  

रामकिशोर उपाध्याय 
  
उत्तराखंड की इस विपत्ति में सभी के दुःख में मैं भी अत्यंत दुखी हूँ और सभी की मंगल कामना करता हूँ . यह कविता केदार के नाथ की हमको चेतावनी स्वरुप हैं

शिव(प्रकृति ) की चेतावनी
++++++++++++++++

मैं तो अपने नंदी पे सवार
ले गणेश पारवती को संग
जग कोलाहल से दूर यहाँ
आ बसा पहाड़ सपरिवार

तूने कभी मुझके भोला बताया
और किये पांव मुझपे सवार
कभी तू पूजने लगा सरे राह
फिर भी नहीं किया प्रतिकार

मैंने टोका तुझे बार-बार
करता रहा तू बस इंकार
मुझे रहने दे अकेला यहाँ
तू करता रहा मेरा व्यापार

हिमगिरी पे भी किया तंग
किया हैं मेरी शांति को भंग
खुद ही काटे पहाड़ पेड़ सब
मेरा नहीं,ये तेरा ही हैं प्रहार

तू यह जान ले ऐ मानव !
खा जायेगा लालच का दानव
बस रख मुझे अपने ह्रदय में
वरना यूँ ही मिटेगा बार-बार

राम किशोर उपाध्याय

Wednesday, 19 June 2013

वो हर रात अपने अल्फाज  को तकिये के नीचे रखता
और सुबह बाज़ार में सिक्कों के बदले चलाने लगता

रामकिशोर उपाध्याय

Tuesday, 18 June 2013


संकेत 
+++++

और
भी कई है ऊंचाईयां
आकाश के आगे -
ना देखो घबराकर
तुम्हे एहसास नहीं है -
तुम तो एक तृण हो
उड़ते गुबार का -
हवा के झोंको को तुम अपनी उडान ना मानों
वह तुम्हारी गति नहीं हैं
तुम्हे ना धरा मिलेंगी
ना ही आकाश
हां ................
अगर तुम समुद्र के किनारे
उड़कर बैठ गए तो हो सकता है
कोई तुम्हारा सहारा लेकर
डूबने से बच जाये
वैसे तिनकों का सहारा डूबने वाले लेते नहीं है
डूबने वाले
अक्सर तैरने के  भ्रम में डूब जाते हैं
अच्छा होता
तुम उत्सर्जित पत्र बन उड़ जाते
एक नए बसंत के स्निग्ध पत्र को जन्म देकर
या फिर किसी ताल के जल पर बैठ जाते
जिस पर कोई नन्हा जीव
नांव बनाकर उतरजाता
पार .....................
चला जाता उस पार
जहाँ उसका प्रियतम
कर रहा है इंतज़ार .......

राम किशोर उपाध्याय 

Monday, 17 June 2013

भविष्य की राह
+++++++++

सड़क पर
कड़ी धूप में
माँ पत्थर तोडती जा रही थी
पसीने से लतपथ
निहारती थी वो राजपथ            
उसका नौनिहाल
पास ही खेल रहा था
वह सपने बुनती जा रही थी
इस सड़क पर बीस साल बाद
उसका नौनिहाल
बड़ी कार चला रहा होगा
तभी हथोड़ा फिसला
हाथ पर पड़ा
वह दर्द से  चीख उठी
ऊँगली से खून बह रहा था
पास में भविष्य
खड़ा मुस्करा रहा था
घबराओं मत माँ
मैं ऐसे ही स्वप्न पर चोट करता हूँ
ऐसे ही दर्द देता है
देखता हूँ  धैर्य
और  अक्सर लोग
परिश्रम का हथोडा फेंक देते हैं
जो पट्टी स्वयम बांध कर
फिर से पत्थर पर प्रहार करता है
वही मैं हार स्वीकार करता हूँ
और उसी का बेटा
आनन्द की गाड़ी चला रहा होता है
और
वह पीछे बैठकर
मुझे देख रहा होता हैं

रामकिशोर उपाध्याय

Sunday, 16 June 2013

खुशबू
++++

ओहदे में  हम  भले ही ऊँचे  नहीं
खुशामद किसी की,,, करते नहीं
गुंचों की तरह शायद खिलते नही
पर खुशबू किसी इत्र से कम नहीं

रामकिशोर उपाध्याय 

Saturday, 15 June 2013


उन्वान 'सजदा' पोस्ट -1 ---' मैं हूँ ना

मेरा सजदा नहीं है महज़ अदब का एक मुजाहिरा
आप तौकीर के काबिल हो,मैं अदना सा जो ठहरा 

mera sazada nahi hai mahaj adab ka ek mujahira
aap tauquir ke qabil homai adna sa jo thahra 


' सजदा' पोस्ट -२

बाद सजदे के नज़रे उठी तो हम,,,फ़रेफ्ता हो गए
पहले सर झुकाते थे कई जगह अब तौहीद हो गए

bad sazde ke nazre uthi to ham farefta ho gaye
pahle sar jhukate the kai jagah ab to tauhid ho gaye

रामकिशोर उपाध्याय

Friday, 14 June 2013

उन्वान 'शमा ' पोस्ट -२

हैरान हो गया परवाना जब शमा ने कहा
नहीं हैं कुछ हासिल रोज-रोज मंडराने से
दिए भी मिटटी के नहीं तेल भी नकली है
बेहतर होगा बचों अपने ये पंख जलाने से

राम किशोर उपाध्याय   
सावन का सांवरा बादल 

बादल  भाग रहा  था  
चाँद  भी जाग रहा  था 
सूरज पंख  फैलाएं उड़ रहा था नील गगन में 
पंछी तैर रहे थे नीड़ों की नावों  में 
अम्बर गुनगुना रहा था गीत प्रेम के 
बिजुरी लपलपाकर दे रही थी बुलावा 
मत भागो रे बदरा !

पवन ने रथ थाम दिया था नभ में 
स्वाति आ गया था गगन में 
पपीहे ने मुख खोल दिया 
जीवन  बिंदु पा लिया  
धरती फिर रजस्वला हो गयी 
और  आंखे बंद करके सोख लिया अमृत की बुँदे
नभ का प्यार लेकर हरी भरी हो गयी
सब की प्यास बुझा गया 
जीवन का आगाज़ कर गया 
वह  
जोर-जोर से जब बरस गया 
सावन का एक सांवरा बादल ,,,,,,,,,

रामकिशोर उपाध्याय 

Thursday, 13 June 2013


क्रिकेट में सट्टेबाजी की और दिया  जनता को धोका
तमाम गुनाहगारों पर लगा दिया पुलिस में मकोका

बड़े -बड़े जा रहे है इस कांड में हवालात
पड़ रही उनपर दिनभर जूता और लात

काटे खटमल रातभर टूटी खाट पे  नींद ना आवे
घरवाले बोले कुछ ना पर कान जरुर पकड्वावे   

लघु कवितायेँ


लघु कवितायेँ

अर्थ
 इसके बिना सब व्यर्थ
पर करता जरुर अनर्थ ...........

मुद्रा -
प्राप्त होते ही
बदल जाती व्यक्ति की मुद्रा--

आशा
मिटा देती निराशा
जन्म दे जाती जीने की अभिलाषा ......

अनिल
मछली भी विकल
ना  हो तो बस अनल ही अनल ..........

दर्प
का एक भाई
कंदर्प ..............

राम किशोर उपाध्याय



अगर तुम नाराज हो तो !


अगर तुम नाराज हो तो मैं ना बोलूँगा
शहद छोड कानों में सीसा ना घोलूँगा

अगर तुम नाराज हो तो पार जाऊंगा
मझधार  में अपनी कश्ती ना छोडूंगा

अगर तुम नाराज हो तो ज्ञान बढ़ाऊं
पुराणों को छोड़ फेसबुक ना खोलूँगा  

राम किशोर उपाध्याय 
उदासी का सबब 


हर कोई आजकल उदासी का सबब पूछ्ता है
किस दामन मे गिरे मेरे नम मोती पूछ्ता हैं

ख़ुदा ना करे ये जवाल किसी दुश्मन पे आये
वरना कमजोर आदमी मौत का पता पूछ्ता हैं

Ramkishore Upadhyay

Wednesday, 12 June 2013

कुछ खास हैं 
++++++++

लबों पे प्यास और दिल में आस है 
लगता है  मेरा नदीम आस पास है 

हर रात में गीली होती है  पत्तियां 
गिरी चादर पे शबनम बड़ी खास है 

बिखरती है रौशनी रोज असमान से
चांदनी में आज  घुली हुई मिठास हैं

सजती है महफिले तो खास-ओ-आम  
गाया गीत आज उसने बहुत बिंदास हैं   

कोई कुछ भी  कहे, मुझे क्या  पड़ी है 
जब   खुदा ही मेरा महबूब-ए-खास हैं

रामकिशोर उपाध्याय 

Monday, 10 June 2013

क्या मज़ाल है !

रुबरू ना सही दिल की उस तस्वीर से कहेंगे 
उलफत हमने  की है तो उलफत करते रहेंगे 

दीदार ना सही पर दीदों मे हैं उनका अक्स 
चोट करना उसूल ग़र है तो दर्द सहते रहेंगे 

वो होले से बज़्म से उठ कर कब चले  गये  
निगाहे दर पे हम उनका इंतेज़ार करते रहेँगे 

वो काशी में रहे या फिर काबे मे हो आबाद  
वो खुश रहे हमेशा ये दुआ  हम करते रहेंगे    

क्या मज़ाल कि लब पर उनका नाम आये
पर उनका नाम खुदा क़ी जगह रटते रहेंगे

ना ख़त लिखेंगे और ना ही करे  मुजाहिरा
हवा के झोंके हाल-ए-दिल बयां करते रहेंगे      

इस सफ़र में कभी दरिया तो कभी सहरा
तो कभी समंदर की मोजों से लड़ते रहेंगे

आरज़ू  कैसी है जो सफीनों में नहीं शाया
बिन मुरशिद  इश्क का सबक़ पढ़ते रहेंगे  

रामकिशोर उपाध्याय 


Sunday, 9 June 2013

शिकायत हैं कि उन्हे मेरा पैगाम-ए-मुहब्बत मिला 
मुआफ करदे रिन्दों के अल्फ़ाज़ भी बहक जाते है 

राम किशोर उपाध्याय 


"मुक्ति का चादर "

मंथर- मंथर  चलते हो,
जैसे  गगन में बदली
लिए नीर का गागर.

मद्धम मद्धम हँसते हो,
जैसे उपवन में कली
लिए गंध का सागर.

चंचल-चंचल उड़ते हो,
जैसे पवन में तितली
लिए पराग का पातर.

सिन्धु  -सिन्धु  बहते हो,
जैसे जल में मछली 
लिए मुक्ति का चादर.

(C) राम किशोर उपाध्याय 

UNWAAN 'ARZOO" (2 )

में पेशे खिदमत है दूसरा शेर :

सदियों की आरज़ू में आरिफ़ के जेहन में उभरा एक अक्स
गज़ब हो गया  ईश्वर की जगह महबूब का ही उभरा नक्श

sadiyoN ki aarzo me arif ke jehan me ubhra ek aks
gazab ho gaya Ishwar  ki jagah mahboob ka hi ubhra naksh

राम किशोर उपाध्याय 

गद्दार बने हैं वतन परस्त,रूह सनी है काजल से
मक्कारी के उन पैमानों में दारू ढलती है छल से


शब्-ए-वस्ल में महबूब का दामन उसने चाँद तारों से भर दिया
आज सुबह आसमान से टटे हुए तारों को मैंने फूल बनते देखा  है

राम किशोर उपाध्याय

रात 

रात की निगहेबानी में ...


ढूंढती क्यों हैं ये आंखे
सुबह के उजाले में
एक किरण रोशनी की
अंधेरी लंबी गुफा में...

देखता हॅू फडफडाते हुए
एक परकटे परिंदे की मानिंद
खुद को घुटनभरी
एक सर्द रात में ...

कि बुझेगी प्यास
देखकर सागर किनारा
मन पुलकित हो जाता हैं
उनके एक इशारे में ...

अक्सर क्यों देखता हॅू
अक्स
अपनी उदास खामोशी का
मैं हर शख्स में ...

कुछ सूखे कूप सा खाली हैं
नही छोडती पीछा परछाई
बेशक रात गहरी काली हैं
मेरी तन्हाई में..


नही मालूम ये अम्बर की मरजी हैं
या चांद  की कारस्तानी हैं
तारों के टूटने का यहां जारी हैं सिलसिला
रात की निगहेबानी में ...

4.1.2012

'आज का महाभारत '
  
हे हृषिकेश!
 मुझे दोनों सेनाओ` के मध्य 
 मत ले चलो-
हे देवकी नंदन
आप तो जानते हैं मेरा भ्रातृप्रेम        
पर मुझे राज्य भी चाहिए 
किसी भी मूल्य पर -
हे पार्थ !
मैं  तुम्हारा दर्द समझता हूँ 
आओ मैं तुम्हे वहां   ले चलता हूँ 
जहाँ  कई दुर्योधन तो होंगे ,
शकुनी होंगे, पर चौपड़  नहीं होंगी   
भीष्म होंगे, पर शरशैय्या नहीं होंगी,
ध्रतराष्ट्र  होंगे, पर अंधे   नहीं होंगे,
वार नहीं वाद होगा-
हम बारी-बारी से 
राज्याध्यक्ष कि कुर्सी बाँट लेते हैं-
और हस्तिनापुर में पहले  शपथ ग्रहण दुर्योधन का होगा.

पर सखे !
द्रौपदी को  उप-राज्याध्यक्ष  बनाना  ही  चाहिए
मैंने  उसे खुले केश बाँधने के लिये  कह दिया है.   
      


प्रेम के प्रतीक तुम


प्रेम के प्रतीक तुम
दिल के करीब तुम
व्यथा मत कहो.

अव्यक्त मनभाव को
अकथनीय संवाद को
देह धरकर  सुनो

सांध्य  का दीप तुम
उषा का प्रदीप तुम 
दिव्य बन चलो 

अनन्य  कृति   तुम
अदृश्य शक्ति   तुम
गाथा बन रहो .

संताप  पर करुणा  तुम
मन की प्रेरणा तुम 
सरिता बन बहो.









बरसात


कभी कडकती बिजली  लपलपाती
कभी तेज झोंकों से डराती
कभी नन्ही नन्ही बूंदों की बौछार
तो कभी मूसलाधार
बरसात --
लगता हैं आई हैं आज
मेरी देहरी पर पहली बार
चाहती हूं फेंक दूं
अपनी चुनरिया
तंग अंगिया
और
औढ लू बूंदों की झीनी चदरिया
कह दूं –
हे गगन, हे पवन और हे धरा
हे प्रकृति महान-
ये गोल -गोल मुखाकृति
ये खंजन नयन
ये मदमस्त यौवन
जीवन अमृत को थामे ये नत कुच
स्वर्ण मेखला से सजा कटिप्रदेश
मृगी की चाल
बस देख ले इस बार
ना मिलूंगी अगली बार
आरहा हैं पुरूष मेरा, मेरा प्यार
मिल जायेगा सृजन का भार
बारम्बार ---
चाहे वारिद बरसे दिन चार  
लांघकर देहरी, डूबो दे मेरा घर द्वार
ना मिलूंगी फिर बार-बार
मिलूंगी तो शिव के द्वार
जंहा होगी ना चाहत 
नव देह की एक भी बार
ना ही चक्र आवागमन का
राग और द्वेष का
देव के चरणों में
मैं भस्म में लिपटी
मिलूंगी -
बस शून्य में सिमटी !
बस शून्य में सिमटी !!

Saturday, 8 June 2013

मैं मानता हूँ कि तुझे मुहब्बत है मुझसे 
पर ये पांव तेरे घर का पता नहीं जानते 


रामकिशोर उपाध्याय 
अगर अपना जख्म छुपा देता 
वो एक नश्तर और चुभा देता

अगर मैं अपना रंज  सुना देता 
वो एक कहानी और भुना लेता  

रामकिशोर उपाध्याय 

साहिल पे मौजों का नज़ारा देखता हूँ,



साहिल पे मैं बस, मौजों का नज़ारा देखता हूँ,
वो जाती बार बार, मैं पैरों के निशां देखता हूँ। 

जब लहरों में डगमगाती जब खुद्दार वो कश्तियाँ,  
पुख्ता इरादे के नाखुदा में , मैं फ़रिश्ता देखता हूँ।

जहाँ तहां पड़े हैं यहाँ सीप, घोंगे और कौड़ियाँ ,
समेटने में मशगूल ,मैं परेशान जहाँ देखता हूँ।

जाल को काट कर हंस रही हैं  व्हेल मछलियाँ ,
मछुवे के सन्नाटा परसे मैं बस मकाँ देखता हूँ।

मुसाफिर को जब छलती है सागर में दूरियां ,
इश्क में  जलता ,खुद का ही दिया देखता हूँ।

दिन ढले अक्सर छाती  हैं रूह में  विरानियाँ
चांदनी से होता  मैं चंदा का निकाह देखता हूँ।

घिरती  रात में बढ़ती हैं लहरों की अठखेलियाँ 
कल  फिर मिलेंगे, इस यकीं में खुदा देखता हूँ।

रामकिशोर उपाध्याय