Sunday, 9 June 2013


गद्दार बने हैं वतन परस्त,रूह सनी है काजल से
मक्कारी के उन पैमानों में दारू ढलती है छल से


शब्-ए-वस्ल में महबूब का दामन उसने चाँद तारों से भर दिया
आज सुबह आसमान से टटे हुए तारों को मैंने फूल बनते देखा  है

राम किशोर उपाध्याय

रात 

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