"मुक्ति का चादर "
मंथर- मंथर चलते हो,
मंथर- मंथर चलते हो,
जैसे गगन में बदली
लिए नीर का गागर.
मद्धम मद्धम हँसते हो,
जैसे उपवन में कली
लिए गंध का सागर.
चंचल-चंचल उड़ते हो,
जैसे पवन में तितली
लिए पराग का पातर.
सिन्धु -सिन्धु बहते हो,
जैसे जल में मछली
लिए मुक्ति का चादर.
(C) राम किशोर उपाध्याय
(C) राम किशोर उपाध्याय
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