ढूंढती क्यों हैं ये आंखे
सुबह के उजाले में
एक किरण रोशनी की
अंधेरी लंबी गुफा में...
देखता हॅू फडफडाते हुए
एक परकटे परिंदे की मानिंद
खुद को घुटनभरी
एक सर्द रात में ...
कि बुझेगी प्यास
देखकर सागर किनारा
मन पुलकित हो जाता हैं
उनके एक इशारे में ...
अक्सर क्यों देखता हॅू
अक्स
अपनी उदास खामोशी का
मैं हर शख्स में ...
कुछ सूखे कूप सा खाली हैं
नही छोडती पीछा परछाई
बेशक रात गहरी काली हैं
मेरी तन्हाई में..
नही मालूम ये अम्बर की मरजी हैं
या चांद की कारस्तानी हैं
तारों के टूटने का यहां जारी हैं सिलसिला
रात की निगहेबानी में ...
गहरी उदासी मे डूबी यह कबिता ,शीघ्र ही मंजिल मिलने की ओर इशारा करती है । सुंदर कबिता ।
ReplyDelete"Raat ki nigahebaani mein" read a good poem after a long,really toucing.
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