Wednesday, 28 December 2011
Thursday, 22 December 2011
आइने की किरचे
शिक्षा
सुबह --
अधिकारी डांट रहा था बाबू को
भ्रष्ट हो तुम
निलंबित कर दूंगा तुम्हे .
शाम --
अधिकारी डांट रहा था ठेकेदार को
क्यों दी रिश्वत बाबू को सीधे ही ?
जानते नहीं
सूचना- पट पर लिखा हैं
"किसी भी कार्य के लिए सीधे अनुभाग में जाना मना हैं.''
त्याग
एक सभा में छुटभैय्या चीखा ...
अरे भाई अपने नेताजी ने
समाज के लिए
उत्थान के निमित्त
नंगे पांव रहने का संकल्प किया है
सुना है की नाही ?
भीड़ से एक नौजवान चिल्लाया ...
अरे भाई !
बीस साल बाद
कोई यह न कहे
कि नेताजी ने तो सदा ही जूती चटकाई है
जानते हो कि नाही.
आइने की किरचे
Tuesday, 20 December 2011
"नव वर्ष की अभिलाषा "
न हो हताश
असीम नभ के अदृश्य छोर तक
पाँखे न पसार पाने पर,
न हो निराश
धरा के सुदूर कोनों तक
डग न भर पाने पर ,
न हो प्यास
मेघ की नवोदित बूंदों के मन -चातक के
मुख न पड़ पाने पर ,
न हो उदास
समुद्र के उत्थित प्रहारों के
तट न बंध पाने पर
सिक्त हो प्रभु !
जीवन अमृत से घट
खुले नित नए
संभावनाओं के पट
हो जीवन-दृष्टि विस्तृत
जो अछूती संवेदनाओं को करे स्पर्श
चखूँ नित आनंद -अमृत
प्रभु ! इस नव वर्ष .
Thursday, 15 December 2011
ख़ुशी
पाने को आदमी, ख़ुशी के पल,
छलता जाता खुद को हर पल .
कभी पिघलता जिस्म की गर्मी से
कभी जमता रिश्तो की बेरुखी से
घुटकर रह जाता कभी अचल .
छलता जाता खुद को हर पल .
कभी आती धुंध को ही सच मानता
कभी जाती गंध को समेटना चाहता
गिरता कभी टूटते तारे सा विकल .
छलता जाता खुद को हर पल .
कभी झरने का पानी बन बहता
कभी जंगल की आग बन जलता
भ्रम में उलझ रह जाता अचल .
छलता जाता खुद को हर पल .
कभी आशा में विचलित हो जाता
कभी निराशा में प्रेम गीत भी गाता
देख शोख अदाएं जाता मचल .
छलता जाता खुद को हर पल .
कभी सिक्कों के लिए दानव बनता
कभी सिक्का बन भट्टी में गलता
माया नगरी में लुटता पल पल.
छलता जाता खुद को हर पल .
एक अमूर्त या मूर्त है ख़ुशी
एक टुकड़ा या पूर्ण है ख़ुशी
उतर भंवर में गर है सबल.
छलता जाता खुद को हर पल .
अर्थ, काम या मोक्ष है ख़ुशी
भीतर छलकी पड़ी है ख़ुशी
ठगेगी वरना ख़ुशी, तू बस चल .
पाने को आदमी, ख़ुशी के पल,
छलता जाता खुद को हर पल .
आशा
प्रिय मित्रों,यह कविता एमिली डिकिन्सन की महान कविता 'होप' को हिंदी में अनुवाद करने का एक प्रयास मात्र है. यदि सही लगे तो दाद देना नहीं तो सुझाव देना. धन्यवाद.
आशा का पंछी
रहता जिसका आत्मा में वास,
बिन बोले भी करता मधुर गान
और उड़ता गगन निर्बाध,
बहे चाहे जितनी तेज आंधियां
या उठे भयंकर बवाल,
कर सकता नहीं निढाल
करता सभी को उर्जा से निहाल
आती है मेरे कानो में आवाज़
आती है मेरे कानो में आवाज़
बर्फीले मैदानों में या फिर हो समुद्र निराला ,
निष्ठुर विवशताओं में भी
नहीं मांगता मेरा एक निवाला .
Wednesday, 14 December 2011
नहीं मांगता फूलों की क्यारी
नहीं मांगता फूलों की क्यारी
नहीं बांटता बगिया तुम्हारी
हो सोने के कंगन प्यारे-प्यारे
गले में हो बाँहों का हार तुम्हारे
पावों में हो पायल व घुंघरू
घायल दिल को कहाँ धरुं
ह्रदय पर चलती छुरी तुम्हारी
होले से बजती सीटी हमारी
अब आ जाओ निकट हमारे
बरसों से पड़े
मेरे अधूरे अरमान पर तरस खा भी जाओ .
नहीं मांगता स्वर्ग तुम्हारा
चमकता रहे मुखड़ा प्यारा
चाहता हूँ कि बहे दरिया-ए-जाम
हो रोशन तेरे साथ मेरी हर शाम
जब कभी बले दिया मद्धम
हो चले सांसें मेरी गजब
न हो कोई दूरियां
और न कोई मजबूरियां
मदहोशी में लब रहे खामोशी में
सदियों से पड़ी
मेरी बंजर जमीन पर बरस भी जाओ .
Wednesday, 7 December 2011
हाईकू
(1)है बदलाव
सर्दी की ठिठुरन
बर्फ अलाव .
(2) नया जुगाड़
घोडा चलता पीछे
टमटम के .
(३) होती बरखा
पतझड़ के बाद
नया मौसम .
(4) आज की सत्ता
नेता बनता स्वार्थी
प्रजा बाराती .
(५) शासन मौन
जनता पलायन
है सुशासन .
(६) लोकसेवक
मिथ्या ही पहचान
माया गबन.
बर्फ अलाव .
(2) नया जुगाड़
घोडा चलता पीछे
टमटम के .
(३) होती बरखा
पतझड़ के बाद
नया मौसम .
(4) आज की सत्ता
नेता बनता स्वार्थी
प्रजा बाराती .
(५) शासन मौन
जनता पलायन
है सुशासन .
(६) लोकसेवक
मिथ्या ही पहचान
माया गबन.
हाईकू
Friday, 2 December 2011
बींट किये हुए चंद आदमकद बुत
स्वयं
को कर विदीर्ण
दिन-प्रतिदिन
रात दर रात
सिद्धांतो के पोषण में कर दिया देह को भी
समर्पित एक दिन
शाश्वत अग्नि को-
कि रहे अनश्वर
अनादि सनातन सत्य ---
लोग
बड़े विचित्र
अनुसरण के विपरीत
महानता का चोला ओढ़ा दिया
जीते जी पाया सिर्फ
चंद हार, अपवित्र हाथों से
और मरने पर पाया
असहाय मरीज की तरह
अस्पताल के बोर्डों पर नाम
व बींट किये हुए
धूप में यहाँ वहां चौराहे पर
बिना छतरी के खड़े
चंद आदमकद बुत
(बींट किये हुए चंद आदमकद बुत)
रामकिशोर उपाध्याय
२.१२.२०११
Thursday, 1 December 2011
मन चातक की पीर
उमड़-घुमड़ कर छायी बदली,
काली-काली ,पर रीती नीर .
तरड- तरड कर चटकी धरती,
कौन सुनेगा मन चातक की पीर.
कौन सुनेगा मन चातक की पीर
पिया मिलन को चली हंसिनी
उभरा यौवन ,नयन अधीर
पता पूछती फिर भी भटकी
कहाँ मिलेगा प्यासी को नीर .
कौन सुनेगा मन चातक की पीर.
लगी लगन जब एक ही और
कौन है राँझा, कौन है हीर
गान में लिपटी प्रेम की पीड़ा
कौन कहेगा थी वो एक मीर
कौन सुनेगा मन चातक की पीर.
लहरों का शोर
बीच पर बैठे कुछ लोग
ढूंढ़ रहे थे कुछ मन की शांति
तन की शांति
लहरों के शोर से बेखबर, अनजान
चल रहा था द्वंद, जो कह रही थी
सावधान !तट
हम आ रही है , आती रहेंगी
जब तक तुम्हे लील न जाये
हंस पड़ा तट - बिना कमजोर हुए
ओ लहरों ! क्या तुम मुझे यही प्रतिफल दोगी
मुझसे ही क्रीडा करने का
मत भूलो , बंधा है मैंने समुद्र को अपने बंधन में
दिया है आकार- प्रकार
वर्ना जमीं पर ओ लहरों
लील जाता तुम्हे सूर्य
सोख लेती तुम्हे धरा
गंभीर हो, लहरें कुछ थम सी गयी
तट भी उनका आशय समझ गया
और दे बैठा उन्हें पुनः निमंत्रण क्रीडा का
निशा बढ़ने लगी
चांदनी ने पूरे समुद्र पर चादर फैला दी
लोग उठकर जाने लगे
जाने बिना
तट का लहरों से प्रेम को
समुद्र का मर्यादा के प्रति सम्मान को
और
लहरों का शोर में छिपे निरंतरता के उद्घोष को -----
Wednesday, 30 November 2011
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Monday, 28 November 2011
थोड़ी सी जिन्दगानी दे दो.
अँधेरा ही अँधेरा चारो तरफ,
गहरी लम्बी सुरंग के जाना हैं उसपार
उजाले तो तुमने छीन ही लिए हैं,
आशाओं के दीप तो जला लूँ,
तुम मुझे बस थोड़ी सी रौशनी दे दो.
खत्म न होने वाला ये कैसा सफ़र हैं,
लोग चलते साथ,पर हमसफ़र नहीं बनते,
'आई लव यू ' ने चैन छीन ही लिया हैं ,
अब मंजिल की तरफ कदम बढ़ा ही लूँ,
तुम मुझे बस थोड़ी सी रवानी दे दो.
कैसा है यह प्रेम,लुट जाने को मन करता हैं,
ख्वाहिशों है क़ि मरती ही नहीं ,
हर दिन जवान होती ही जाती है,
छोटी सी किश्ती से सागर पार जाना चाहता हूँ,
तुम मुझे बस थोड़ी सी जवानी दे दो.
घूमते वक्त के पहियों से बंधा 'मैं',
मन की पीड़ा सहेजता चला जा रहा हूँ,
प्रेम को तो पथ में ही लूट लिया है,
थोड़ी सी मन की जिंदगी जी लूं,
Sunday, 27 November 2011
प्रेम में अक्सर
ह्रदय जब टूटता हैं तो
आइने की तरह बिखरता नहीं
ग्लेशियर पर बर्फ की तरह जम जाता हैं.
साथ जीने के वादे
गठबंधन की तरह मजबूत नहीं होते
कस्तूरी की तरह नाभि में कैद होकर रह जाते है.
स्मृति के बीज
बगीचे में फलदार वृक्ष नहीं बनते
केक्टस की तरह उग आत्मा में चुभते रहते है.
नवजीवन की कल्पनाएँ
दिवास्वप्न की तरह सुन्दर नहीं होती
यथार्थ की शिलाएं बन स्पंदनहीन हो जाती है.
अन्तरंग क्षणों की कसमें
सेमर के फूल की तरह उड़ती नहीं
विवाह- मंडप की अग्नि में होम हो जाती है.
रामकिशोर उपाध्याय
२७.११.२०११
वाराणसी,उ.प्र.
Saturday, 26 November 2011
'स्त्री '
स्त्री
तुम नदी हो
गिरि चरणों का कर प्रक्षालन
लिए मिलन की चाह जाती सागर ओर
बहती रहती अविरल
कभी तोड़ती कूल किनारे
कभी अनुशासन सीमा में बंधती चल
झरनों को पास बुलाती
और करती कलकल निनाद
पी जाती पीड़ा जन्मों की
तुम करती नहीं विषाद
उत्कर्ष के तरल को भी
ले सहेज अपने अंक में
तुम लौटा देती जीवन अविकल --
तुम धरा हो समृद्ध
जो होती नहीं कभी वृद्ध
वक्षस्थल पर चलते हल
करते नहीं तुम्हे क्लांत
जन्म देने का सुखकर अनुभव
तुम रहती विश्रांत
जीवन-बीजो को स्पंदन देकर
तुम रचती जाती प्रकृति अनंत -
स्त्री !
तुम नदी हो ?
तुम धरा हो ?
या फिर शिव की शिवा हो ?
नहीं है मेरे प्रश्नों का अंत--
तुम प्राण हो
प्राण प्रिय हो
माँ हो
भगिनी हो
प्यारी सी बेटी हो
तुम वो सुरभि हो
जो फैली हैं दिगंत--
' रामकिशोर उपाध्याय '
तुम नदी हो
गिरि चरणों का कर प्रक्षालन
लिए मिलन की चाह जाती सागर ओर
बहती रहती अविरल
कभी तोड़ती कूल किनारे
कभी अनुशासन सीमा में बंधती चल
झरनों को पास बुलाती
और करती कलकल निनाद
पी जाती पीड़ा जन्मों की
तुम करती नहीं विषाद
उत्कर्ष के तरल को भी
ले सहेज अपने अंक में
तुम लौटा देती जीवन अविकल --
तुम धरा हो समृद्ध
जो होती नहीं कभी वृद्ध
वक्षस्थल पर चलते हल
करते नहीं तुम्हे क्लांत
जन्म देने का सुखकर अनुभव
तुम रहती विश्रांत
जीवन-बीजो को स्पंदन देकर
तुम रचती जाती प्रकृति अनंत -
स्त्री !
तुम नदी हो ?
तुम धरा हो ?
या फिर शिव की शिवा हो ?
नहीं है मेरे प्रश्नों का अंत--
तुम प्राण हो
प्राण प्रिय हो
माँ हो
भगिनी हो
प्यारी सी बेटी हो
तुम वो सुरभि हो
जो फैली हैं दिगंत--
' रामकिशोर उपाध्याय '
Thursday, 24 November 2011
तू ये जीवन फूलों से उधार ले,
धैर्य की शक्ति के साथ
शौर्य की भक्ति के साथ
गर्व की मुस्कान के साथ
तू अब संकल्प मन में धार ले,
स्वप्न प्रिय को धरा पे उतार ले.
आएँगी कई अभी आंधियां भी राह में
उठेंगे कई जलजले कभी यहाँ चाह में
दृढ़ता की पहचान के साथ
तू किश्ती भंवर से अब उबार ले,
स्वप्न प्रिय को धरा पे उतार ले.
हंसेगे लोग कई हर किसी बात पे
बिछायेंगे लोग तुझे हर बिसात पे
युद्ध विजय -अभियान के साथ
तू हार को मन से अब बिसार दे,
स्वप्न प्रिय को धरा पे उतार ले.
मत रुक, बस सिर्फ चलता चल
पग से राह के कांटे हटाता चल
गंध मादक की उडान के साथ
तू ये जीवन फूलोंसे उधार ले ,
स्वप्न प्रिय को धरा पे उतार ले.
Friday, 18 November 2011
'खुद का जिबह'
सुख असीम
दुःख अनंत
सिर्फ मनस्तिथि
पर
सुख के निर्विघ्न क्षणों में
मन के रथ के घोड़े जब निरकुंश हो
पंक में सरपट दोड़े तो
विवेक के खड़क से
खुद को
जिबह करने दौड़ पड़ता हूँ.
जीवित संशय
कौन है
हम
सागर से सिमटकर कूप बनते
विद्वता से घटकर मूढ़ बनते
परन्तु चंद सिक्को की अल्पता से अधिकता को समर्पित
निरजीव संदर्भो में उलझे
उर्ध्वगमन के भ्रम को पालते
जीवंत के प्रति उदासीन
थमे हुए ज्ञान के उत्तराधिकारी
हम---
जीवित संशय हैं
सिद्ध नहीं.
Wednesday, 16 November 2011
' तुम आ ही जाते हो'
मन पुलकित की बयार हो
या फिर भावनाओं का ज्वार हो
तुम आ हो जाते हो
कभी आँखों की चौखट पर
कभी आलिंगन की चाहत पर
उदास ह्रदय देख लगता है
कि इर्दगिर्द अथाह समुन्द्र है
किश्ती लिए खडा हूँ , पर तूफान बढ़ने ही नहीं देता
तुम फिर भी आ ही जाते हो
कभी माझी बनकर
कभी पतवार बनकर
जब डूबता है सूर्य
रजनी को दुल्हन बनाकर फैल जाती है लालिमा
चादर सी , खुद बिछड़ प्रिय से
तुम आ ही जाते हो
कभी फूल बनकर
कभी सेज बनकर
पवन के झोंके जब तेज आते
कलि से रूठ कर अलि चले जाते
और गीत गुनगुनाना छोड़ जाते
तुम आ ही जाते
कभी गान बनकर
कभी तान बनकर
चेतना पर जड़ता छा जाती
तन-बंधन ढीले पड़ जाते
भ्रम का धुंध घेरने लगता
तुम आ ही जाते हो
कभी आस्था बनकर
कभी विश्वास बनकर
अनुभूति का यह कैसा स्पर्श हैं
जहाँ स्थूल नहीं स्थूलेतर हैं
सुक्ष्म भी हैं कहाँ, यह काल जानता है
'स्व' जाने किधर है, बस समाधि सी लगी है
तुम आ ही जाते हो
कभी श्वास बनकर
कभी सुवास बनकर
या फिर भावनाओं का ज्वार हो
तुम आ हो जाते हो
कभी आँखों की चौखट पर
कभी आलिंगन की चाहत पर
उदास ह्रदय देख लगता है
कि इर्दगिर्द अथाह समुन्द्र है
किश्ती लिए खडा हूँ , पर तूफान बढ़ने ही नहीं देता
तुम फिर भी आ ही जाते हो
कभी माझी बनकर
कभी पतवार बनकर
जब डूबता है सूर्य
रजनी को दुल्हन बनाकर फैल जाती है लालिमा
चादर सी , खुद बिछड़ प्रिय से
तुम आ ही जाते हो
कभी फूल बनकर
कभी सेज बनकर
पवन के झोंके जब तेज आते
कलि से रूठ कर अलि चले जाते
और गीत गुनगुनाना छोड़ जाते
तुम आ ही जाते
कभी गान बनकर
कभी तान बनकर
चेतना पर जड़ता छा जाती
तन-बंधन ढीले पड़ जाते
भ्रम का धुंध घेरने लगता
तुम आ ही जाते हो
कभी आस्था बनकर
कभी विश्वास बनकर
अनुभूति का यह कैसा स्पर्श हैं
जहाँ स्थूल नहीं स्थूलेतर हैं
सुक्ष्म भी हैं कहाँ, यह काल जानता है
'स्व' जाने किधर है, बस समाधि सी लगी है
तुम आ ही जाते हो
कभी श्वास बनकर
कभी सुवास बनकर
'मेरे मशहूर होने तक'
मेरा यह एक प्रयास मात्र हैं. सुधिजन , कृपया इसे ठीक कर मार्गदर्शन करे.
'मेरे मशहूर होने तक'
बुझ जाने दो शम्मा को अब सहर होने तक
काफी है उजाले यादो के दफ़न होने तक.
या रब शब और सहर में फासले क्यूँ है.
आते हैं कई सैलाब आखों के बस कोने तक.
मिटटी के घरोंदे के मानिंद मेंरे कुछ ख्याब
टूट जाते है अक्सर तेरे करीब आने तक
सोच का सिलसिला बादस्तूर रहा तन्हाई में
सूरत भी बदलती गयी मेरे परेशां होने तक
नहीं है गिला मेरी गुमनाम पहचान पर अब
नज़रे बदलती रही तेरी मेरे मशहूर होने तक.
१६.११.२०११
'मेरे मशहूर होने तक'
बुझ जाने दो शम्मा को अब सहर होने तक
काफी है उजाले यादो के दफ़न होने तक.
या रब शब और सहर में फासले क्यूँ है.
आते हैं कई सैलाब आखों के बस कोने तक.
मिटटी के घरोंदे के मानिंद मेंरे कुछ ख्याब
टूट जाते है अक्सर तेरे करीब आने तक
सोच का सिलसिला बादस्तूर रहा तन्हाई में
सूरत भी बदलती गयी मेरे परेशां होने तक
नहीं है गिला मेरी गुमनाम पहचान पर अब
नज़रे बदलती रही तेरी मेरे मशहूर होने तक.
१६.११.२०११
Tuesday, 15 November 2011
'जीवन , नभ से पवन के बीच'
नभ
जब क्रोधित होता है तो
मेघ बन कर सूर्य पर छा जाता है
उग्र प्रेमिका की तरह
सूर्य के अनुनय विनय पर
झम-झम कर बरस जाता है
प्रेम में उन्मत्त रमणी की तरह--
सागर
जब उद्विग्न होता है तो
ज्वार बन तट तोड़कर धरा पर फैल जाता है
पिता के आक्रोश की तरह---
जब धरा से प्रेम करता है तो
भाटा बनकर पहलु में सिमटकर शांत हो जाता है
आसक्त प्रेमी की तरह--
जब उदार होता है तो
सभी नदियों का जल समेत लेता है
परिवार के मुखिया की तरह--
पवन
जब निराश होती है तो
आंधिया बन बनों को भी धरा पर लिटा देती है
असंतुष्ट पत्नी की तरह--
जब विनम्र होती है तो
मलयज बन शीतलता का संचारकर देती है
सहृदय बहन की तरह--
जब करुणामयी होती है तो
जेठ की दुपहरी में भी मद्धम मद्धम बहती है
प्यारी माँ की तरह--
Wednesday, 9 November 2011
एक ग़ज़ल कुछ यूँ ही
कसमें उठाते हैं कि हर घर हो रोशन
दिए अपने ही घर उठा लाते हैं लोग
चिलचिलाती धूप में दम तोडती जिंदगी
ठंडी छाँव को घर में छिपा लेते हैं लोग
जीने के सबक आज मिलते ही हैं कहाँ
मौत बेचते फिरते हैं सफ़ेद पोश लोग
मंजिल हरेक को मयस्सर हो ही कहाँ
अब राहों को अक्सर घुमा देते हैं लोग
जिद है कि मंजिल पर पहुंचेगे जरुर
मुखालफ़त करते फिरते हैं कुछ लोग.
.
Friday, 4 November 2011
मेरा ही मन.
मेरा ही मन.
चन्द्र सुप्त नभ से निहारता रहा
मेरा ही स्वप्न .
कभी कामना से , कभी भावना से
शूल बन मेरी देह को कीलता रहा
मेरा ही रोम .
काया से बूंद-बूंद टपकाता रहा
सांसों से भांप बना उडाता रहा
मेरा ही आक्रोश.
कभी कल्पना बन दौड़ता रहा
कभी यथार्थ बन कुढ़ता रहा
मेरा ही मन.
४-११-२०११
Thursday, 3 November 2011
'जब अपने बेटे को देखता हूँ. '
'जब अपने बेटे को देखता हूँ. '
हरे-भरे पत्ते को छूना
वृक्ष की डाली पर झूलना
दौड़कर बाग़ में तितलिया पकड़ना
तब याद आता हैं मौसम सुहाना .
गायों का तेजी से घर को भागना
बछड़ों का थनों को मुंह मारना माँ का दुहते हुआ दूध की धार फैंकना
देर से स्कूल से आने पर
माँ का सड़क पर टिकटिकी लगाकर देखना
बचा हुआ खाना देखकर
माँ का प्यार से पकडना
तब याद आता हैं माँ का प्यारा जमाना .
देर तक खेलना
रूठ कर मानजाना
चुपके से बहन की पेन्सिल छुपाना
पिताजी की पिटाई खाकर
माँ की गोद में छिपजाना
तब याद आता हैं बेखौफ बचपना
दोस्तों को बिना बात छेड़ना
अपनी किताबे दूसरे बस्ते में रखना
अपनी किताबे दूसरे बस्ते में रखना
खाने के डिब्बे से चुराकर खा लेना
झूठ-मूठ की जिद करना
मास्टरजी का बैंत खाना
तब याद आता हैं शरारती याराना .
Tuesday, 1 November 2011
'कौन हो तुम '
दूत -
खुशहाली के
पर बाणों को
झेलने से पहले ही लहूलुहान हो उठे हो तुम.
झेलने से पहले ही लहूलुहान हो उठे हो तुम.
मसीहा-
मानवता के
पर सलीब को
खुद के काँधे पर ढ़ोने से घबरा उठे तुम .
सिपहसलार -
वतन और कौम की रहनुमाई करने वाले
पर खुद को
जिबह करने से कतरा उठे हो तुम.
सिर्फ शोर हो तुम-
जो हमारी गफलतो से पैदा हुआ.
या फिर महज एक सन्नाटा-
जो हमारी खामोशियों से गहराया.
अँधेरे में साये की तरह
कौन हो तुम?
कौन हो तुम?
Friday, 28 October 2011
' छोटी-छोटी कवितायेँ '
सफलता
उन सभी को चुभती हैं
जो रहे सदैव
असफल .
दूसरों की राह में अक्सर
लोग पत्थर ही नहीं फैंकते
पहाड़ भी खड़े करते हैं.
जो पत्थर तोड़ने में रहे सदैव
असमर्थ.
काँटों
के साथ कैसे जीते हैं.
यह गुलाब से अधिक कोई नहीं जानता.
' कामयाब '
साहिल शांत
लहरे अनंत
---टकराहट प्रतिपल बढती ही जाये
फिर भी साहिल हटता ही नहीं
----बना होगा फौलाद का
सोचा दूर के मुसाफिर ने
परन्तु
निकट आकर देखा तो थे
---रेत के कुछ कण
कितने बिखरे-बिखरे
कितने अलग-अलग
पर
--- मकसद में पूरे कामयाब
. कविता का जन्म मद्रास ( अब चेन्नई) के मरीना बीच पर वर्ष १९८६ में हुआ. कादम्बिनी में भी प्रकाशित हुई
'ड्राईंगरूम के कोने '
हाशियें पर खिसके लोगों को
अब बोंजाई की तरह उगाने लगे हैं ---
उनको कांट-छांट कर
उनको जमीन से उखाड़कर
ड्राईंगरूम के कोने में बड़ी ही खूबसूरती से सजाने लगे हैं.---
और प्रकृति- प्रेमी का पदक पहनकर
सत्ता-लक्ष्मी के भवन में प्रतिष्ठित हो उठते हैं.
आज का आदमी--
आदर्शो की लम्बी परछाई के तले
कथनी और करनी में विरोधाभास के बोझ के तले
कितना पिग्मी हो चला हैं
कि यथार्थ के आईने में
अपनी कुरूपता छिपाने के लिए
शतुरमुर्ग की तरह
जमीन में सर छिपाने लगा हैं. ---
' कैक्टस'
वन में खिल रहा था पलाश
बाग़ में प्रमुदित था गेंदा, गुलाब
क्यूँकि-
जल वृष्टि थी भरी-पूरी
फिर पास में थी कल-कल करती नदी
धरा की प्रकृति थी भुर-भुरी
माली की खुरपी थी भी प्यारी
खाद और कीटनाशक की थी भरमारी
पर -
जोर की गर्मी में आदित्य की टेढ़ी
एक ही भ्रकुटी के समक्ष कालकलवित हो गए
जो थे गेंदा और गुलाब
पलाश भी हो गया बे-आब
परन्तु
वन में फूलता रहा तो
सिर्फ एक फूल
कैक्टस-----
कैक्टस के खिले फूलों के देखकर मुझे लगा की जीवन और वन दोनों समरूप हैं. अगर हम कैक्टस की तरह जिए तो कम सुविधाओं में प्रसन्न रह सकते हैं. आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित हैं.
Thursday, 27 October 2011
दीवाली
दीवाली
कार्तिक अमावस की रात में
राजा रामचंद्र के स्वागत में
पूरी ही प्रजा प्रसन्न हैं
सुराज अब आसन्न हैं
अब रामजी करेंगे राज
पूरण होंगे सबके काज
यक्षों के राजा कुबेर
लगे घर धन के ढेर
मंथन से आई माँ महालक्ष्मी
अर्थ,धान्य की न होगी कमी
गणेश जी की करेंगे पूजा
दूर्वा के अंकुर मिश्री कुजा
कमल के फूल व श्रद्धा समर्पण
धूप दीप नैवेद्य मधु का अर्पण
होगी देवी प्रसन्न
पुलकित तनमन
गौतम जी आए हैं
ज्ञान सभी लाये हैं
शिर्डी में साईं के संग
श्रद्धा सबुरी की उमंग
बाटेंगे अब खील बताशे
बाजेंगे अब ढोल व ताशे
मन में फूटेंगे लड्डू
खुश है राजू व गुड्डू
ले दीपो के थाली
आई शुभ दीवाली !
आई शुभ दीवाली !
२६.१०.२०११