Wednesday, 14 December 2011

नहीं मांगता फूलों की क्यारी


 


नहीं मांगता फूलों की क्यारी
नहीं बांटता बगिया तुम्हारी
हो सोने  के  कंगन   प्यारे-प्यारे
गले में हो बाँहों का हार तुम्हारे
पावों में हो पायल व घुंघरू
घायल दिल को कहाँ धरुं
ह्रदय पर चलती छुरी तुम्हारी
होले से बजती सीटी हमारी
अब आ  जाओ निकट हमारे
बरसों से पड़े
मेरे  अधूरे  अरमान  पर तरस खा भी जाओ  .   

नहीं मांगता स्वर्ग तुम्हारा
चमकता रहे मुखड़ा प्यारा
चाहता हूँ  कि बहे दरिया-ए-जाम
हो रोशन तेरे साथ मेरी  हर शाम
जब कभी  बले   दिया मद्धम
हो चले  सांसें मेरी गजब 
न हो कोई दूरियां
और न कोई मजबूरियां
मदहोशी में लब रहे खामोशी में
सदियों से पड़ी
मेरी बंजर जमीन पर बरस भी  जाओ .

1 comment:

  1. प्रिय मित्र , जो आप मांग रहें है , वह भी कम नहीं है ।

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