मेरा ही मन.
चन्द्र सुप्त नभ से निहारता रहा
मेरा ही स्वप्न .
कभी कामना से , कभी भावना से
शूल बन मेरी देह को कीलता रहा
मेरा ही रोम .
काया से बूंद-बूंद टपकाता रहा
सांसों से भांप बना उडाता रहा
मेरा ही आक्रोश.
कभी कल्पना बन दौड़ता रहा
कभी यथार्थ बन कुढ़ता रहा
मेरा ही मन.
४-११-२०११
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