हाशियें पर खिसके लोगों को
अब बोंजाई की तरह उगाने लगे हैं ---
उनको कांट-छांट कर
उनको जमीन से उखाड़कर
ड्राईंगरूम के कोने में बड़ी ही खूबसूरती से सजाने लगे हैं.---
और प्रकृति- प्रेमी का पदक पहनकर
सत्ता-लक्ष्मी के भवन में प्रतिष्ठित हो उठते हैं.
आज का आदमी--
आदर्शो की लम्बी परछाई के तले
कथनी और करनी में विरोधाभास के बोझ के तले
कितना पिग्मी हो चला हैं
कि यथार्थ के आईने में
अपनी कुरूपता छिपाने के लिए
शतुरमुर्ग की तरह
जमीन में सर छिपाने लगा हैं. ---
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