Friday, 24 January 2014

दोहा ...1 

व्यवहार ही महत्वपूर्ण ,मित्रता या व्यापार,
सदाचार सबसे श्रेष्ठ,**जीवन का आधार.

दोहा (4)

हुआ बाहर भीतर सम,द्रवित भाव भरपूर,
बैरन हुई ठंडी पवन, मिलने को मजबूर. 

दोहा (६)

जानें सखा उसको ही ,सुख दुःख दोउ निभाय,
गिन-गिन दोष दूर करे,*जीवन सुखद बनाय. 

दोहा (7 )

गीत कहो या ना कहो ,,,बोलो मीठे बोल,
पाये सहज ही निजता,बढे मान अनमोल.


दोहा (९)

अधर पे मुरली सोहे,नैना बने विशाल,
सिर पे सजे मोर मुकुट, है वो नन्द का लाल.



दोहा (10)

ह्रदय भरा हैं भाव से, बीती जाये रात,
अगन लगाये चांदनी,पिया करे ना बात. 


दोहा (11)

कर्म से ही बनता मनुष्य,साधु और शैतान,
जाना हैं किस राह पर ,,,,विवेक से पहचान.

रामकिशोर उपाध्याय

संसार में एक स्वप्न साकार करना हैं,
उदात्त भाव को ही स्वीकार करना हैं,
न होने पाए अहित किसी का मुझसे,
स्वयं का विस्तार इस प्रकार करना हैं.

उसकी तन्हाई में कई तस्वीर उभरती रही,
कभी जूलियट तो कभी हीर सी बनती रही,
तसव्वुर में उसके अक्स था तुम्हारा, मगर,
तुम तो और किसी के ख्यालों में डूबती रही. 



मेरी खता
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आज
घर के बाहर
खड़े थे मेरे ख्वाब 
अचानक फ़लक पे
अब्र घिर आये
और बारिश में भीग गए
मेरे सब के सब ख्वाब
सुखाने के लिए
आंच दी
तो मेरी हकीकते सूख गई
कोई खता ..

रामकिशोर उपाध्याय
ईश्वर की इच्छा (लघु कथा )
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कोहरा बहुत छाया हुआ था।आदमी को अपना हाथ भी नहीं दिखाई दे रहा था।शरीर ही नहीं रुह भी कांप रही थी।नौकरी के लिये निकलना राजन के जरूरी था।अस्पताल में उसके मरीज लाइन में खड़े होकर प्रतीक्षा कर रहे थे। राजन ने अपनी मेहनत और लगन एवं सहृदयता से अपने मरीजों का विश्वास ही प्राप्त नही किया अपितु अपने सहयोगियों व अस्पताल प्रबंधन का भी विश्वास हासिल किया। वह हमेशा ड्यूटी के समय से लगभग एक घंटा पहले निकलता था ताकि लास्ट मिनट की भागमभाग से बच सके.

वह अपने स्कूटर से जा रहा था कि अचानक उसे सड़क के किनारे एक युवक और एक युवती एक दूसरे से लिपटे पड़े दिखाई देते है।वह रुक गया ।देखा तो दोनों बेहोश हैं।पल्स उनकी बहुत धीरे धीरे चल रही है।वह अस्पताल में फोन करने के लिये अपनी जेब में हाथ डालता है तो पता चला कि उसका मोबाइल फोन घर पर ही छूट गया है।एक पल के लिए वह परेशान हो जाता है,परन्तु अगले ही पल वह दोनों को स्वयं ही अस्पताल में ले जाने का फैसला करता है। सड़क सूनी थी।वैसे भी वह भीड़ वाले रास्तों का उपयोग नहीं किया करता था।

समय कम था,उसने पहले लड़की को किसी प्रकार अपने स्कूटर ने बिठाया और जाकर इमरजेन्सी में डाक्टर के हवाले कर लडके को लेने भाग गया और आधे घंटे में उसे भी ले आया। तबतक लड़की का इलाज शुरू हो चुका था और वह हरकत में आ चुकी थी। दूसरे डाक्टर ने लड़के का इलाज शुरू कर दिया।

राजन फिर भी समय से अपनी ओ पी डी में था। बीच बीच में वह उन दोनों का हालचाल लेता रहा। दोनों अगले दिन स्वस्थ होकर डिस्चार्ज हो गये और अपने घर लौट गए। राजन भी भूल गया। करीब एक महीने बाद एक दिन शाम को अस्पताल से घर पहुँचा तो देखा कि एक लड़का लड़की उसके ड्राइंग रुम मे उसका इंतज़ार कर रहे थे। वह उनको पहचान नहीं पाया।उन्होंने राजन के पैर छुरे और बताया कि उन्हीं दोनों की प्राणरक्षा राजन ने की थे।वे बेहोश होने के कारण राजन को नही पहचान पाये। उन दोनों की शादी होने वाली थी और उसी खरीदारी करने वहां आये ।कुछ लोगों ने यह भांप कर उनके पीछे लग गये।उनकी गाड़ी और पैसे छीनकर उन्हें बेहोश कर रात के बारह बजे के उस सुनसान सड़क के किनारे फेंक गए,यही समझकर कि इस रास्ते से कोई आता जाता नहीं है। काश!आप न आये होते तो वे मर ही गये होते।आप डाक्टर ही नहीं भगवान है। यह सब वह लडका एक सांस में कह गया। उसके बाद लड़की ने कार्ड निकाल कर राजन को देते हुए कहा कि यदि वे उसके विवाह में नहीं आये तो वह विवाह नही करेगी। राजन ने हां कर दी।वे दोनों अपनी कृतज्ञता ज्ञापित कर संतुष्ट भाव से लौट गये।

राजन अपनी दिनचर्या में लीन हो गया।उनके विवाह की तिथि वह भूल गया। विवाह के दिन शाम को अचानक याद आया। विवाह स्थान दो सौ किमी था। कैसे पहुंचे,सोचकर परेशान हो गया।एकबार सोचा कि काम की अधिकता से भूल गया,कह दूंगा,मगर अगले पल सोचा कि वह नहीं गया तो कहीं विवाह ही न करें वे लोग। उसनें टेक्सी बुलाई और निकल पड़ा। फेरों का समय निकल गया था परन्तु विवाह मंडप में सन्नाटा था।उसने किसी से पूछा कि शादी हो गयी।उत्तर मिला लड़की का भाई अभी आनेवाला हैं,तभी होगी। राजन दौड़ कर नेहा (लड़की)के पहुंचा। नेहा को उसने गले लगाया और बिना देर किए मंड़प में ले गया।शहनाई बज उठी।

नेहा विवेक (लड़का) के साथ सप्तपदी ले रही थी और राजन सोच रहा था कि ईश्वर कितना महान है जिसने उसने दो बार नेहा और विवेक का जीवन दो बार बचाने का उसका प्रयोग किया,एक बार उनका दैहिक जीवन और दूसरे उनके प्रेम के जीवन को। राजन के चेहरे पर ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव था और वह एक प्यार भरा भाई -बहन का रिश्ता लेकर लौट रहा था।
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रामकिशोर उपाध्याय
I dare to dream
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Look at me
With contempt or glee 
My face may not inspire 
My gestures may expire 
Yet,I love one and all
During ones rise and fall
I light the lamp of wisdom for the whole night 
Till the darkness vanishes and day becomes bright
My friends may feel envious
My foe may look dangerous
Yet I dare to dream
Without scratch and scream
With faith's battery
Devoid of flattery.
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Ramkishore Upadhyay
20.01.2014
कविता 
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कविता ......
लिखना संयोग नहीं 
वियोग से उत्पन्न हुई 
किसी ने कहा कविता ..........
नभ से उतरती 
सितारों में विचरती 
चाँद को छूकर 
सूरज से तपकर
पेड़ों के पत्तों से छनकर
वर्षा में भीगकर
भावों की धरती पर
प्रस्फुटित होती रही कविता .......
किसी ने कहा जब तक जरुरी न हो
न लिखो कविता ........
सृजन का एक स्वाभाविक दबाव हो
तभी लिखो कविता .....
मैं समझता हूँ दर्द का दबाव न हो
तबतक न लिखो कविता ......
यही सोचकर नहीं लिखता
कविता .........

रामकिशोर उपाध्याय


कोल्हू का बैल
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ज़िन्दगी
रूठकर देह से
भागना चाहती हैं
निविड़ में
खुद से ही प्रश्न करने को
और अक्सर
लौट आती हैं
थककर
चूर-चूर होकर
बंधने को
बिन नाथ और पगहे के
हर शाम को
तबेले में गड़े खूंटे से ,,,,
फिर
अगली सुबह
जुत जाती हैं
खुद ही
कोल्हू का बैल बनकर
आँखों पे पट्टी बांधकर
जिंदगी ....

रामकिशोर उपाध्याय


और मैं लौट आया
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ड्राइंग-रूम
और
बेड़-रूम से बाहर निकलकर
कभी-कभी मैं 
घर के पिछवाड़े भी
टहलता हूँ
तो देखता हूँ कि
कुछ संग्रहणीय वस्तुएं
अनुपयोगी कालातीत समझकर
फैंकी हुयी मिलती हैं
जैसे मेरी स्मृतियाँ ....
मैं नाराज भी होता हूँ
टिक –टिक करती घड़ी की सूई पर
जो शायद उचित नहीं होगा
क्योंकि वर्चस्व हैं आज का
परन्तु .....
अभी कल ही बात हैं
मेरी एक सद्य स्मृति
रुदन करती मिली ...
कहने लगी
मुझे विस्मृत मत करो
अभी इतना जल्दी
बाहर मत फेंकों
मैं चौंककर लौट गया
उसी कीकर के वृक्ष के नीचे
पत्थर की बेंच पर
वही जहाँ तुलसीदास को मिला
हनुमानजी मिलने का मार्ग
वही बैठकर उपजे.......
भक्ति -भावों का
स्नेहिल स्पंदन का
स्निग्ध मुक्त बंधन का
बड़ी कठिनाई से स्थिति नियंत्रित हुई
जैसे पेट के लिए रोटी मांगती भीड़
जबतक मैंने
उसे झाड़-पोंछकर
साफ़ करके पुनः सजा न दिया
कपबोर्ड में
बच्चों की ट्राफियों के साथ ....
और मैं लौट आया
चमकता दमकता.

रामकिशोर उपाध्याय





मेरा इश्क*तुझे नज़र नहीं आया,
वो जुदा नहीं,,,मुझमें ही समाया.

मेरी तलब जैसे- जैसे बढ़ती गयी,
मेरी अना* का होने लगा सफाया.

हर भोली सूरत में वो नजर आया,
रूह में उसका जलवा हुआ नुमाया.

रामकिशोर उपाध्याय
मुक्तक:
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सज गयी है उजड़ी हुई महफ़िल,
जब डूबकर इश्क में हुए गाफ़िल,
अब नहीं खतरा किन्ही मौजों से,
मुझे बुला रहा है मेरा वो साहिल.



गैरों से भी अपनों जैसी बात करता हूँ,
सीधा हूँ और सीधी सच्ची बात करता हूँ,
जमीं को जमीं समझके अक्सर सर नवाता हूँ,
हों मजबूर तो फ़लक पे भी पांव धरता हूँ.
यह मुक्तक जो मैं नवोदित साहित्यकार मंच पर चित्र अभिव्यक्ति में नहीं लिख सका.....
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के चल रही ठंडी पवन,,,,,,,बचने को तपन चाहिए,
पिघलने को सपने,,,बस दिल में तेरे अगन चाहिए,
तुम भी हाथ सेक लो,,और हम भी ठिठुरना छोड़ दे,
फिर आएगा बसन्त,आदमी को होना मगन चाहिये.

रामकिशोर उपाध्याय
मित्रो, आज नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जयंती हैं.मेरा शत -शत नमन उस भारत माँ के लाडले वीर को ... उन्ही को समर्पित एक मुक्तक.
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बेड़ियों में थी मातृभूमि,देख यही था उसको रोष,
मन था व्याकुल, भरा था उसकी भुजाओं में जोश , 
बना आज़ाद हिन्द सेना जिसने अंग्रेजो को ललकारा था,
वह था प्यारा,भारत माँ का दुलारा सुभाष चन्द्र बोस.

रामकिशोर उपाध्याय

ये दुनिया 
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सोचता हूँ 
अपनी रूह को 
रख आऊँ 
किसी खला में
पर
क्या
भरोसा
वहां भी हो
एक दुनिया.....

रामकिशोर उपाध्याय

इंतज़ार क्यों ?
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शाम से ही 
बैठ गए आकर 
वो सपने 
मेरी आँखों की दहलीज़ पे 
रात का भी किया 
नहीं इंतज़ार .....
मेरे महबूब के थे 
उसके हुस्न के थे 
उसकी वफ़ा के थे
मेरी जुस्तजू के थे
मेरी बेकरारी के थे
दिल की मजबूरी के थे
लम्बे हिज्र से उबरे
मेरे वस्ल के थे
वो मेरे अपने थे .....
उनके साथ देखे थे ...
वो सपने
करते फिर
इंतज़ार क्यों !!!!

रामकिशोर उपाध्याय

Saturday, 11 January 2014

दोहा ,,,प्रथम प्रयास --१


मित्रो, आ. छाया शुक्ल जी के कुशल मार्गदर्शन में मैंने आज दोहा लिखने का प्रयास किया हैं ...उन्हें मेरा नमन ..और यह दोहा उन्ही को समर्पित ...सादर 


विधा ==दोहे मात्रिक छंद
 प्रथम तृतीय चरण में १३ - १३ मात्राएँ
द्वितीय चतुर्थ चरण में ११-११ मात्राएँ

व्यवहार ही महत्वपूर्ण,मित्रता या व्यापार,
सदाचार सबसे श्रेष्ठ,**जीवन का आधार.(1)
देखते ही मुखर हुये, नयन द्व और धड़कन,
चढ़ी प्रत्यंचा सासों की,हुआ प्रेम का अंकुरण.(2) 
गीत गा लिया पत्थरों ने,लुट गया सब संगीत,
क्या करना वीणा मृदंग,**जब रूठ गया मीत.(3)
हुआ बाहर भीतर सम,द्रवित भाव भरपूर,
बैरन हुई ठंडी पवन, मिलने को मजबूर. (4)
बन शिष्य सीख किसी से, रख चरणों में ध्यान,
जान लेगा रहस्य सभी ,**क्या वेद क्या पुराण.(5) 
सखा उसे ही मानिए,सुख दुःख दोऊ निभाय,
गिन-गिन दोष दूर करे,जीवन निर्मल बनाय.(6)




कर्म से ही बनता मनुष्य,साधु और शैतान,
जाना हैं किस राह पर ,,,,विवेक से पहचान.


रामकिशोर उपाध्याय

अनंत का यात्री 
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अतीत के 
कुछ एक पन्ने मुड़े -तुड़े
कुछ एक डायरियां 
कहीं से हर्फ़ उड़े 
कही बींट से सने
मेरे संदूक से कल निकले
शायद किसी भ्रमवश सहेज लिया हो
पर उनमे कहीं भी
था नहीं मेरा नाम
हो भी कैसे सकता था
ना इतिहासकार था
ना चित्रकार था
ना गीतकार
ना संगीतविज्ञ
ना कलाकार
मैं
तो इतिहास
भी न बन सका
विदा के समय में
अकेला ही तो था मैं .....
वो मर्यादा में बंधे रहे
मैं बंधन ना छोड़ सका
बस रह गया
नदी के बीच बहते जल सा .....
समय के पत्थरों से टकराता
कभी इस किनारे
कभी उस किनारे
चलता रहा किसी
ना राग में
ना द्वेष में
अनंत को जाता
एक यात्री ....
बस एक यात्री ......
यह किसी ने कहा था

रामकिशोर उपाध्याय
मेरी यादें 
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मेरी यादें 
बरगद बन गयी थी 
कोई सौ साल पुराना
पत्ते भी नहीं आते
अब तो इस पर कोई पक्षी
घोंसला भी नहीं बनाता
कोई प्रेत भी नहीं टिकता
एक रात से ज्यादा
बहुत पहले
एक बूढा फ़कीर
दिया जलाता था
साल में एक बार
अब वो भी नहीं आता
शायद पुनर्जन्म
हो गया होगा उसका
गवाक्ष से देखा
कल ही मेरे बच्चे
एक बोंजाई खरीद के लाये
बरगद के पेड़ का
मुझे लगा मैं जिन्दा हो गया
अपनी यादों में
मेरे बच्चे मेरी यादों को
पाला पोसा करेंगे
अब
मैं
विलीन हो सकूँगा ....
वहां जहाँ तुम होंगे ...

Tuesday, 7 January 2014

कल्पना…
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ये कल्पना…
भी बड़ी अजीब होती है
बेखौफ, बेलाग और बेहया
ना समय देखती
ना जगह देखती
ना सामने कौन है
ना दाएं कौन है
बस आ जाती है
बिन पैरों के
बिन पंखों के
और चलकर
एक घरौंदा
एक नीड के लिए
एक बया की तरह
बस बुनती रहती है
समय को
झंझावातों को
निरंतर चुनौती देती हुई…
कल्पना…
कहा हो चक्रपाणी ?
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मेरे सपने 
ना हुए अभी तक अपने 
जैसे परकटे परिंदे
जैसे लटके हो गले में फंदे
ना उड़ना संभव
ना जीना संभव
कहा हो चक्रपाणी ?

रामकिशोर उपाध्याय


क्या काफी नहीं हैं ?
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एक टोकरी
खुशी की
एक कटोरी 
ग़म की
क्या काफी नहीं
इस जीवन जीने को ......

एक प्याला
हाला
एक चुटकी
दोस्ती का नमक
क्या काफी नहीं
जीवन सुधा पीने को...

एक अंदाज
पलटकर देखने का
कुछ एक कदम
बलखाकर चलने का
क्या काफी नहीं
किसी पे मरने को ......

एक विश्वास
अपनेपन का
एक उच्छ्वास
आकर्षण का
क्या काफी नहीं
किसी को अपना बना लेने को .......

रामकिशोर उपाध्याय
अर्थ कुछ तो होगा ......
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हम 
अक्सर सोचते हैं ...
सुकून हैं
तो ठंडी हवा क्यों हैं
मन भीगा हैं
तो बारिश क्यों हैं
जिस्म जल रहा हैं
तो लू क्यों नहीं चली
इन नित नयी
और कभी कभी
हमारे लिए निर्थरक बातों में
कुछ
तो अर्थ होगा ....
शायद
हमारी तार्किक बुद्धि के परे
जैसे बारिश में खड़े हो
और भीगे नहीं ........
या फिर धूप में चल रहे हो
और पांव जले नहीं ........

रामकिशोर उपाध्याय
ये डूबती मीनारें 
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खड़े हैं तने कंगूरे
किसी मीनार के 
उभरे हैं अक्स 
किसी दीवार पे
पुष्प और पत्ती व वल्लरी के 
अनुपम सौन्दर्य के 
हम भी खुश हैं उन्हें देखकर 
उनके पत्थर पर
लिखे शासकों के नाम पढ़कर
ये मीनारे...
ये अक्स ....
उन लोगों की
व्यथा को भी कहते हैं
उन अनजान लोगों का
इतिहास भी कहते हैं
जिनके कभी हाथ टूटे
और कभी काट लिए गए
बिन किसी अपराध के ....
बिन किसी प्रतिरोध के .....
इन्हें तामीर करने में
शायद किसी दिन
भग्नावशेष बोल उठे
और कहने लगे
उनका श्रमिकों का इतिहास...
करते हुए आततायियों पर अट्ठाहास.....

रामकिशोर उपाध्याय
लम्बी सुरंग ------


जीवन 
में कभी कभी 
लगता हैं
कि घुप्प अँधेरा
लील जायेगा
अन्तकरण के उजास को भी
तभी एक चाहत अनमनी सी
जगती हैं
कि कोई आकर थाम ले
बस एक ऊँगली
जब हो उजाले
तो अंधेरों से शिकायत न हो
और उजाला कभी भी
दूर नहीं होता
लम्बी सुरंग के पार भी दिखता हैं
और अपने पास भी
चाहे कोई तो
अपनी उँगलियों के पोरुओं से देख ले............
शर्त एक ही हैं
आपके नाखून ना बहुत बढे हो.........

रामकिशोर उपाध्याय

Sunday, 5 January 2014

ये लकीरे .........
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धुंधली 
पड जाये वो लकीरे 
या हो जाया धुंधलका 
उस जगह पर 
जो बांटती हो
इन्सान को
मुझे वैसे रहना भी नहीं
उस जगह पर
जहाँ उगते हो
नफरत के नागफनी
जहाँ बदल जाता हैं
हो किसी का मजहब
काग़ज के टुकड़े देखकर
जिन्हें हम रद्दी की टोकरी में
फैंकते नहीं पुराना होने पर भी
क्या मजहब
क्या सियासत
सब इन कागज़ों के भरोसे चलते हैं
कुछ को ये चलाते हैं
कुछ इनको चलाते हैं
मुझे भी कुछ ही चाहिए
लुटाने के लिए
उनपर
जो मिटा दे
ये लकीरे ............

रामकिशोर उपाध्याय
Journey ,,,must enjoy..
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The chariot moves on
The charioteer keeps on
Going with destination in mind 
In the storm and unfavourable wind
Braving in sun from dawn to dusk
Full of butter and sometimes husk
In the belly under the chin
Heart with courage and desire to win
Never stops
Never broods
Over the travails of travel
Yet, no napping, no interval
Just looking with eternal joy
Legs in spikes and kicking the success ball like a toy.

Ramkishore Upadhyay
1.1.2014
WELCOME 2014 
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Hold your breath
Have faith 
Just some days are gone 
Why one should moan
Life in most beautiful forms is yet to come
Many a flowers are yet to bloom 
Then why should one gloom

Ramkishore Upadhyay


मित्रो,नव वर्ष 2014 का हम स्वागत करते हैं.....कुछ इस तरह से
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के बीती बाते बीत चुकी हैं अब इन्हें भुलाया जाये ,
बाहर खड़े जो पल सुहाने अंदर उन्हें बुलाया जाये.

कल छप्पर मेरा उड़ गया तेज पवन के झोंकों से ,
आज लपक कर तिनको से फिर नीड बनाया जाये.

कहीं बीते साल के सपने सिर्फ रह ना जाये सपने,
सच्ची मेहनत से अपनी इनको सच बनाया जाये.

किसी माँ की आंख से आंसू ना कभी गिरने पाए,
कभी बच्चा बनकर किलकारी से उसे हंसाया जाये.

गुजरा हुआ वक़्त आता नहीं दोबारा,जानते हैं सब,
फिर नए साल में यादों का जश्न खूब मनाया जाये.

Ramkishore Upadhyay
31-12-2013
तुमने क्या राग छेड़ दिया,
दग्ध ह्रदय को कुरेद दिया,
देखा प्रतिकूल समय-गति,
तो क्यों चक्र ही तोड़ दिया. 


साजन भी व्याकुल और सजनी अधीर,
दमकत हैं दामिनी,बादल उड़े बिन नीर , 
गीतों में भरी वेदना ,संगीत लगता शोर, 
अभिसार हुआ दुर्लभ,मरघट बना शरीर.



उनसे कह दो धूप में बाहर ना जाये,
रहे पोशीदा और चिलमन ना उठाये,
फलक पर छाये हैं बादल मालूम हो,
नाजुक बदन हैं कहीं फिसल ना जाये




के नाकाम तमन्नाओं से जिस्म*जलते हैं,
फिर ये पिघलकर क्यों अश्क बन बहते हैं.



ना सागर हूँ ठहरा हुआ,ना बहका किनारा,
मौज -ऐ-दरिया हूँ, खुद से इश्क का मारा.
मेरी हसरतों का कारवां 
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कोई 
दूर से ही गुजर गया 
कोई
पास आकर दूर चला गया
यूँ ही बस
मेरी हसरतों का कारवां
जंगल -जंगल
बस्ती -बस्ती
जिस -जिस रास्ते से गुजरा
हर तरफ
अजीब से सन्नाटे से एक बड़ा शोर उभरा ......

रामकिशोर उपाध्याय
चलो फिर एक बार
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चेहरे पे 
गिरा लूं केश 
या चश्मा लगाकर 
छिपा सकता हूँ स्वयं को स्वयं से क्या ?.

झूठ बोल कर
मुकर भी जाऊं किसी के सामने
सच आईने के सामने खड़ा होने का
साहस कर सकूँगा क्या ?

वोट लेकर एक बार
चुनाव जीत भी जाऊं
लोगों की भेदती नजरों से बच भी जाऊं
मन का चैन जीत पाऊंगा क्या ?

नश्वर इस देह को धरते हुए
कुछ को प्यार करूँ
या कुछ को दुत्कार दूं
अमरता पा सकूँगा क्या ?

चलो फिर एक बार
स्वयं से अजनबी बन जाता हूँ .....

रामकिशोर उपाध्याय