Sunday, 5 January 2014

चलो फिर एक बार
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चेहरे पे 
गिरा लूं केश 
या चश्मा लगाकर 
छिपा सकता हूँ स्वयं को स्वयं से क्या ?.

झूठ बोल कर
मुकर भी जाऊं किसी के सामने
सच आईने के सामने खड़ा होने का
साहस कर सकूँगा क्या ?

वोट लेकर एक बार
चुनाव जीत भी जाऊं
लोगों की भेदती नजरों से बच भी जाऊं
मन का चैन जीत पाऊंगा क्या ?

नश्वर इस देह को धरते हुए
कुछ को प्यार करूँ
या कुछ को दुत्कार दूं
अमरता पा सकूँगा क्या ?

चलो फिर एक बार
स्वयं से अजनबी बन जाता हूँ .....

रामकिशोर उपाध्याय

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