Thursday, 1 October 2020

Farmer's Plight

The bread that fills our belly

The spices which trigger the buds naturally 

The juicy fruits we taste 

Does it come before us in haste ?

No ,no ,

It comes when Mother earth becomes pregnant of  the seeds

As a fruit of good manly deeds  

The sky showers the rain and pour the dew 

Comes out the shoots new 

Earth wears  a green spangled  gown and sari and smiles in joy

And it comes only  when farmer tills the earth  with hard plough 

And  toils for hours and days 

During winter ,heavy rain and even in  stinging sun rays 

His clothes are drenched with  saline body drops 

Like spring  running on slops

Then come the sweet crops 

But people treats him with  cannons and bats 

Like ants and rats 

To the capitalist delight 

Forgetting the farmer's plight 

But never try to dismiss his right 

For price fair for his children' future  bright 

He may turn day into night 

As he also knows his might 

=

(C)Ramkishore Upadhyay

Saturday, 19 September 2020

रहस्योद्घाटन ??


कल सुबह जब घूमने पार्क में निकला तो देखा कि एक गाय खड़ी है। वैसे इस पार्क में  मैंने पहले कभी एक कुत्ता या बिल्ली भी नहीं देखी थी । अतः एक गाय का वहाँ होना अचंभा था। गाय से शरीर से जेर (गर्भनाल ) लटकी हुई थी जिससे यह अनुमान लगाना कठिन नहीं था कि उसने एक बछिया या बछड़े को जन्म दिया होगा । अगला चक्कर पूरा करते हुए  जब उसी स्थान के निकट आया तो ध्यान से देखा कि वहाँ उसका बच्चा पड़ा था जिसे वह  चाट रही थी और मुझे देखकर चौकस हो गयी। बच्चा खड़े होने का प्रयास कर रहा था और गाय उसे चाट -चाटकर उठने के लिए भी उत्साहित कर रही थी। माँ का  ममता के साथ सहलाना उनमें शक्ति का संचरण कर रहा था। थोड़ी देर बाद वह खड़ा हो गया। थोड़ी देर गाय अवश्य की बछड़े को लेकर इस इंसानी पार्क से निकलकर अपने मालिक के पास चली गयी होगी।उसका मालिक जरूर कोई दूध का लालची और लापरवाह इंसान रहा होगा,वरना अपनी इस दुधारू गाय को ऐसे क्रिटिकल समय में यूँ ही नहीं छोड़ देता।बचपन में गांव में गाय पाली हैं इसलिए दुख भी हुआ यह देखकर। यह  बात तो बड़ी मामूली सी है  और ममत्व के ऐसे उदाहरण भी हर मादा में रोज देखते ही हैं। यह हमारे जीवन का हिस्सा है।फिर भी न जाने क्यों मुझे यह दृश्य प्रभावित कर गया । घर आकर पत्नी को जब यह किस्सा सुनाया उस समय वह मेरे लिए चाय बना रही थी । उसने मुझे पूछा कि आपको पता नहीं इस विषय में। मेरे इस विषय में जानकारी से  इनकार करने पर एक लघु लोक कथा सुना दी । 


बहुत पहले (हो सकता है सतयुग )की बात है कि एक गांव में एक गाय ने एक बच्चे को जन्म दिया। बच्चा जमीन पर पड़ा था। प्रसूति के बाद गाय अपने आप को अशक्त अनुभव कर रही थी। तभी उसने एक महिला को पास से गुजरते हुए देखा तो आवाज दी । "बहन , जरा मेरे बच्चे को उठाकर खड़ा कर दे । " महिला ने इनकार करते हुए कहा कि तेरा बच्चा गंदा है। मेरे कपड़े और हाथ खराब हो जाएगी।"

गाय ने कहा ," ठीक है। मैं तो अपने बच्चे को चाट- चाटकर खड़ा  कर लुंगी। और तुझे यह शाप देती हूं कि तेरा बच्चा तीन साल से पहले ठीक से चलने -फिरने लायक नहीं होगा।" पत्नी ने बात को तार्किकता से आगे बढ़ाते हुए कहा कि  हमारे  बच्चे साल भर तक तो सामान्यतया खड़ा होने में लेते हैं और ठीक- ठाक से चलने में आगे और  दो साल ले ही लेते हैं।यह गाय का शाप हर स्त्री को लग गया ।बात में दम लगा कि  गाय को  जब अपने बछड़े को चाट- चाट कर खड़ा करते देखा ।  लगता है कि गाय युगों से अपनी संतान को इसी तरह सहारा दे रही है और स्त्री जाति को अभी भी अपनी संतानों की  ठीक से आरंभिक परवरिश करने में तीन साल तक कष्ट उठाने ही पड़ रहें है। मैं अपनी वैज्ञानिक दृष्टि से समझता हूँ कि  यह  बालविकास की स्वाभाविक जीव वैज्ञानिक प्रक्रिया है । किन्तु इसे गाय का मानव जाति के प्रति शाप या अभिशाप नहीं है,यह भी मैं नहीं  कह सकूंगा,क्योंकि  मित्रो,पत्नी, जो स्वयं  माँ भी है, की बात को काटना कितना मुश्किल होता है,यह आप सब जानते हैं।हम लोग मिथकों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक इसी तरह पहुंचाते रहते हैं और अपनी मिथकीय समझ को देशकाल और परिस्थितियों के अनुरूप  विकसित करते रहते हैं । हाँ, यह एक निर्विवाद सर्वकालिक सत्य है कि माँ की ममता में अभूतपूर्व जीवनदायनी शक्ति होती है जो बच्चे के शारीरिक और मानसिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान करती है।

*

रामकिशोर उपाध्याय 

Saturday, 13 June 2020

चौधरी चरण सिंह को 33 वीं पुण्यतिथि पर याद करते हुये

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भारत के पूर्व प्रधान मंत्री चौधरी चरण सिंह को किसान नेता के रूप में लोग जानते है | कृषि अर्थशास्त्र के वे अच्छे ज्ञाता तो थे ही | मैं उनका दो विशेष कारणों से स्मरण करता हूँ ...
* चौधरी चरण सिंह भी मेरठ कालेज,मेरठ (जो उनके समय में आगरा विश्वविद्यालय से सम्बद्ध था,बाद में मेरे समय में मेरठ विश्वविद्यालय और अब उनकी स्मृति में चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय कहलाता है ) के छात्र रहें,जहां से मैंने भी बाद में बी.एससी.और एम. ए. की उपाधियाँ प्राप्त की | यह अहसास मुझे एक अलग सी गर्वांनभूति प्रदान करता हैं |
* उनकी रेलवे के प्रति विशेष लगाव के लिये ,मैं उनको याद करता हूँ | भारत के वे पहले प्रधान मंत्री बने जिन्होने रेल कर्मियों को बोनस देने की घोषणा की और रेलवे के लाखों परिवार लाभान्वित हुये | एक रेलकर्मी होने के नाते मैं उनके प्रति श्रद्धा रखता हूँ |
*
रामकिशोर उपाध्याय

संस्मरण ,,,,,,,,,,,,,गीदड़ को शेर बनाने का इंजेक्शन


उस जमाने की बात है जब मैं रेलवे अधिकारी फेडरेशन का एक अदना सा पदाधिकारी हुआ करता था।फेडरेशन एक पत्रिका भी निकालती थी ,सो उसके संपादन का काम भी मुझे दे दिया गया। रेलवे अधिकारियों के एक समूह की समस्याओं के निराकरण के सिलसिले में चैयरमैन रेलवे बोर्ड और रेल मंत्री से अपने बड़े पदाधिकारी के साथ मिलने भी कभी कभार जाना पड़ जाता था। अपनी जोनल रेलवे के महाप्रबंधक से तो अक्सर मिलते ही थे। अधिकारियों और कर्मचारियों की वाजिब समस्याओं और मांगों के निपटान हेतु रेल मंत्रालय की एक विशिष्ट नीति और प्रक्रिया है। उसी के तहत हम लोग कार्य भी करते थे और अन्याय का विरोध भी करते थे। आप यह सोच रहे होंगे कि अधिकारी तो स्टाफ को ही कष्ट देता है,खुद कभी कष्टमय या समस्याग्रस्त कैसे हो सकता है। सारे कानून ,कायदे तो अधिकारी ही बनाते है। मगर दोस्तों ऐसा सोचना सरासर गलत है। अधिकारी भी अपने प्रमोशन,नियुक्ति और जनहित में आवश्यक अन्य सुविधाओं के लिए उद्वेलित होते रहे हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है। किसी जमाने में आपने एक आईएएस अधिकारी का केस तो सुना होगा जो बोट क्लब पर भूख हड़ताल तक पर बैठ गया था। यह बोट क्लब धरने और रैलियों के लिये तो कब का बन्द हो चुका है।सिर्फ सैर सपाटे के लिये यह जगह अब रह गई है। ज्ञातव्य हो यह बोट क्लब कभी भारतीय लोक की तंत्र के सामने अपनी बात रखने का एक प्रमुख तीर्थ था। कई विशाल रैलियां मैंने यहाँ देखी, जिन्होंने सत्ता में परिवर्तन तक किया। अतीत में हम लोगों ने कई बार इस बोट क्लब,बाद में जंतरमंतर और रेलवे के मुख्यालयों पर धरना दिया। एक बार तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा के द्वारा रेलवे के पास और पीटीओ को आय में शामिल करने के तुगलकी फरमान के खिलाफ पूरी भारतीय रेलों और उत्पादन इकाइयों के गैंगमैन से जनरल मैनेजर तक धरने पर एक साथ बैठे ,यह भी इतिहास इस देश में बना। एक बार रेल मंत्री के द्वारा रेल दुर्घटना के विषय में एक महाप्रबंधक के गैर जरूरी स्थानांतरण पर लंबा मार्च भी निकाला। काली पट्टी बांधकर तो बहुत बार काम किया। पदाधिकारियों के लिए यह करना आम बात है,किन्तु रेलवे की उत्पादन क्षमता और यात्री तथा माल परिवहन को कभी प्रभावित नहीं होने देते। और न ही आपने सुना होगा कि रेलवे अधिकारियों के आंदोलन के कारण रेल यातायात बन्द हो गया। यह बड़ा ही अनुशासित कैडर है। रेल मंत्रालय नियमानुसार वर्ष में दो बार रेलवे अधिकारी फेडरेशन की कार्यकारिणी को बैठक करने की इजाज़त देता है। इन बैठकों में फेडरेशन की गतिविधियों पर गम्भीर चर्चा होती है और भविष्य की रणनीति बनाई जाती है। उस समय श्री सुशील कुमार बंसल हमारे राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। बंसल साहेब शुरू से ही अपने जुझारूपन के लिए विख्यात है। 75 बसंत देख चुके बंसल साहेब में यह जज्बा आज भी कायम है। बंसल साहेब 2005 में सेवा निवृत्त हो गए ,किन्तु अधिकारियों और पेंशनरों के हित में आज भी पूरी तरह सक्रिय है। सभी संगठनों को उचित सलाह देने में कभी नहीं चूकते है,भले ही कोई बुरा मान जाए । वे अलोकप्रिय होने की हद तक जाकर अपनी बात कहते है। हम लोग उनको पितातुल्य सम्मान देते रहे और उनके डांटने फटकारने का बिल्कुल बुरा नहीं मानते ।मुझे तो आज भी उनसे पुत्रवत स्नेह मिलता है।
सन 2003 में फेडरेशन की एक बैठक त्रिवेंद्रम में आहूत की गई ।इसमें सभी रेलवे के नामित पदाधिकारियों ने भाग लिया। त्रिवेंद्रम को अब तिरुवनंतपुरम कहते हैं।यह भारत के सुदूर दक्षिण राज्य केरल की राजधानी है। यहां का कोवलम बीच सबसे सुंदर है। यहां समुद्र का जल गहरा नीला साफ सुथरा है जिसमें आप मछलियाँ और अन्य जैविक संपदा स्पष्टरूप से देख सकते है। इस शहर की रमणीकता और दक्षिण रेलवे अधिकारी संगठन की इच्छा पर यह शहर बैठक के लिये चुना गया।राजधनी एक्सप्रेस से हम यहाँ पहुंचे । लम्बी यात्रा की थकान और पूरे दिन की व्यस्त बैठक के बाद हम जल्दी ही सो गए। अगले दिन सुबह हम कुछ अधिकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री सुशील बंसल के ऑफिसर्स गेस्ट हाउस में अलोटेड कमरें में उस दिन होने वाली कार्यवाही की चर्चा करने हेतु धमक गए । एक युवा अधिकारी ने उनसे पूछा कि सर रेल प्रशासन से आप कार्य किस तरह निकलवा लेते हो,हमें भी कुछ समझाओ । बंसल साहेब इस विषय मे अपना एक अनुभव शेयर कर रहे थे। तभी एक जोनल रेलवे संगठन के अध्यक्ष (मेरे मित्र है अतः नाम लिखना नहीं चाहता। वैसे भी व्यक्ति नहीं विषय का अधिक है।) ने कहा कि बंसल साहेब हमारी तो महाप्रबंधक के सामने जाते ही घिग्गी बन्ध जाती है ।क्या करें? बंसल साहेब थोड़ा सपाट बयानी करते हुए (और इसी कारण अलोकप्रिय होने का आरोप झेलते हैं)।कहने लगे कि भाई हिम्मत तो खुद ही जुटानी पड़ती है। चुने हुए पदाधिकारी हो । नेतृत्व करना आसान काम नहीं होता है। उसे वर्गहित में साहसी,जुझारू और संघर्षशील होना ही पड़ता है,वरना उसको न तो शासन /प्रशासन सम्मान देता है और न ही उसका कैडर इज्जत करता है। और भाई,अभी तक गीदड़ को शेर बनाने का इंजेक्शन ईजाद नहीं हुआ है,वरना तुम्हें अभी लगा देता । यह सुनकर उनके कमरे में हंसी का फव्वारा फूट पड़ा। हमारे मित्र का चेहरा तो देखने लायक था। बंसल साहेब भी हँस पड़े और बाद में उस अधिकारी का ठीक से पुत्रवत मार्गदर्शन किया।
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रामकिशोर उपाध्याय

संस्मरण - मेरठ (आरंभिक जीवन भाग -2 )

संस्मरण --पिछली पोस्ट से आगे.
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पिताजी का एक रुपैया ..मेरा सबसे बड़ा भैया
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पिताजी ने शिवकुमार शर्मा जी से कहा कि ठीक है, हम जल्दी ही सामान ले आयेंगे | कहकर हम घर आ गए,किन्तु वहां गए नहीं |फिर पिताजी को अचानक याद आया कि उनका एक भतीजा मेरठ में रहकर नौकरी करता है। फिर सुभाष नगर से सीधे हम उनके घर गए। उन भाई साहब के परिवार में उनकी पत्नी और एक छोटी बेटी थी ।उन्होंने तुरंत हां कर दी | उन्हें भी लगा होगा कि लड़का किसी काम तो आया करेगा ही ,रख लेते हैं | मेरठ आने की तैयारी शुरू हो गयी | गाँव में उस समय बमुश्किल से कोई टिन का संदूक होता था | नए कपड़े ही संदूक की शोभा बढ़ा पाते थे और अलगनी पर लटके पुराने कपड़ों को चिढाते रहते थे | मां की शादी में मिली बावन गज की गोटे वाली घाघरी, रेशमी अंगिया ,टेरालीन की कमीज और ढाका की वायल के पिताजी के दो सफ़ेद कुरते,लट्ठे के पायजामें या सूती मरदाना धोतियाँ (एक दो ही बस ) जैसे घमंडी कपड़ों को कभी -कभी यानि शादी –विवाह,कुआं पूजन ,लगन ,भात आदि के खासम खास मौकों पर शरीर को डेकोरेट करने के संदूक से निकाला जाता था | संदूक में पड़ी नेप्थलीन की गोलियां से गमकते ये कपडे ज्यादा ही नक्शा मारते रहते थे,ठीक वैसे ही जैसे गरीब को देखकर अमीर ऐंठता रहता है | अब मेरा सामान भी महत्वपूर्ण होने जा रहा था | इस सामान के लिए अब घर में पड़ी एक टिन की पुराणी छोटी संदुकडी तलाशी गयी । दो जोड़ी ड्रेस,यानि सफेद कमीज और खाकी जीन की शार्ट पेंट सिलवा ली गयी थी । दो जोड़ी पट्टे के पाजामे और कमीज । गर्मी थी तो वैल (वायल) का सफेद कुर्ता और एक सफेद लट्ठे का पजामा भी रख दिया। दो जोड़ी जुर्राब और एक जोड़ी बाटा के कपड़े वाले जूते भी संदुकडी में सजा लिए गए । एक किलो का एल्युमिनियम वाला लटकाने वाले डिब्बे में देसी घी साथ में माँ ने घर के निकाले मावे के पेड़े भी एक झोले में रख दिये थे।फिर जलाई 1970 के एक इतवार को ये थैला मैंने कंधे पर लटकाया । कपड़े वाली संदुकडी हाथ मे ली और ओढ़ने बिछाने के कपड़े एज चद्दर में बांधकर पिताजी ने पीठ पर रख ली। स्टेशन आये और मेरठ की ट्रेन पकड़ ली।। शहर स्टेशन से रिक्शा ली और भाई साहब के घर पर पिताजी छोड़कर चले गए। जाते जाते जरूरी सलाह भी दे गए। हमारे जीजा जी के सबसे छोटे भाई ज्ञानप्रकाश शर्मा जी जो उस मेरठ नगर पालिका में ओवरसियर (जूनियर इंजीनियर ) थे ,मेरे स्थानीय अभिभावक बने | ज्ञानप्रकाश शर्मा जी उत्तर प्रदेश के विभिन्न जल प्रदाय संस्थानों में काम करते हुए अधिशासी अभियंता के पद से सेवा निवृत्त होकर अब वसुंधरा गाज़ियाबाद में आनंदपूर्वक जीवन बिता रहे है |
भाई साहेब के साथ रहना शुरू करने के एक महीने में ही भाभी जी के व्यवहार के कारण वह जगह भी छोड़नी पड़ी। अब फिर एक नए आशियाने की तलाश शुरू हुई | मेरी दूर की बुआ के चचिया ससुर पंडित हीरालाल जी कृष्णपुरी में एक धर्मशाला के मैनेजर और मंदिर में पुजारी थे। पंडित जी सबके मर्ज की दवा थे। पंडित जी के अपनी कोई औलाद नहीं थी। मगर किसी को रहने ,खाने या पढ़ने के लिए आर्थिक मदद की जरूरत हो,पंडित जी का द्वार खुला रहता था। बारह साल की उम्र में जीवन कुछ अलग किस्म के अनुभवों से गुजर रहा था। किन्तु निराशा बिल्कुल नहीं थी | पंडित जी ने जाते ही तुरंत एक कमरा मुझे दे दिया। उस कमरे में एक और मेरा जैसा ही विद्यार्थी देवेंद्र गौड़ पहले से ही रहता था। उस कमरे में दो चारपाई और दो अलमारी थी ।बस हम दोनों साथ ही रहने लगे। देवेंद्र गौड़ मुझसे एक साल सीनियर था। हमारी रुचियां बिल्कुल अलग । एक दूसरे के साथ वैसे ही रखते थे जैसे नदी की बाढ़ के कारण एक ऊंचे टापू पर शेर,बकरी,सांप ,घोड़ा और हाथी साथ –साथ रहते है और बाढ़ का पानी उतरने का इंतज़ार करते है । पंडित जी मेरे व्यवहार से शीघ्र ही प्रभावित हुए । जीवन में सादगी और सरलता को पिताजी से गृहण कर उनके साथ रहने लगा | उन्होंने मुझे सुबह- सुबह 4 बजे उठा देना। मंदिर में ही एक कुआं था। उससे पानी निकालकर फिर मैं मंदिर की सफ़ाई करता। पानी भी उसी कुएं का निकालकर पीते थे। सफाई के बाद आरती और भोग लगाने के लिये पंडित जी को बता देता। धर्मशाला तीन मंजिल की काफी बड़ी इमारत थी। सुंदर निर्माण किया हुआ था। इसके प्रथम तल पर तीन परिवार किराए पर रहते थे। धर्मशाला के प्रवेश द्वार पर चार बड़ी दुकानें और दो छोटी दुकान बनी हुई थी,जिसके किराए से मंदिर और धर्मशाला की व्यवस्था और पंडित जी को नाम मात्र का वेतन दिया जाता था। धर्मशाला तीन मंजिल की काफी बड़ी इमारत थी। सुंदर निर्माण किया हुआ था।उस जमाने में सराय और धर्मशाला ही मुसाफिरों को ज्यादातर मुफ्त में ही पनाह देते थे। बस उनसे खाट का किराया जो चवन्नी (पच्चीस पैसे )ही लेते थे। इसी आय से पंडित जी जरूरतमंद लोगों की मदद किया करते थे। पंडित जी ने धीरे -धीरे धर्मशाला में आने वाले मुसाफिरों के पंजीकरण और किराया वसूलने का काम मुझे सौपना शुरू किया । यहाँ तक के उनकी अनुपस्थिति में मैं 12-13 साल का बालक अपनी पढ़ाई के साथ साथ धर्मशाला का काम संभालने लगा। फ्री में रहने के कारण मेरे लिये यह जरूरी भी था। किंतु इसमें मुझे पंडित जी का प्रेम ही ज्यादा नज़र आता था। पंडित जी के साथ रहते- रहते उनके लिए अपने लिए चाय और खाना भी बनाना सीख गया। हालांकि पंडित जी को कई यजमान उनका जीमना करते रहते थे। मेरे पिताजी मुझे प्रतिदिन एक रुपये के हिसाब से पैसा देते थे। पास ही मथुरा के थोड़ा कूब वाले पंडित जी का ढाबा था । वहाँ बीस रुपये महीने की दर से खाना तय किया और छुट्टी के पैसे काट लेता था। उनका खाना बड़ा स्वादिष्ट होता था। दाल सब्जी में डालने के लिए एक कटोरी में देसी घी ले जाता था । सोमवार को सुबह –सुबह घर से मेरठ आता और आने वाले शनिवार का इंतजार करता | शनिवार आते ही स्कूल से सीधा घर भाग जाता था और इतवार की शाम की या सोमवार की सुबह वापस मेरठ आ जाता था। साथ मे होता था घी का डिब्बा और माँ के हाथ की बनाई मिठाई । मेरे उस एक रूपये में कभी दस-पांच पैसे के गोलगप्पे खा लिए या कभी केले | एक रूपये में कोई लग्जरी तो कर ही नहीं सकते थे | सच्ची बात कहूँ तो अय्याशियों का क्या होती थी,पता ही नहीं था | स्कूल से घर और घर से स्कूल के सफ़र के साथ यदि कुछ याद था तो थी पिताजी की छोटी सी तन्खवाह और उनकी हम चार भाई-बहनों के प्रति बड़ी –बड़ी जिम्मेदारियां |
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रामकिशोर उपाध्याय
11.06.2020

संस्मरण - मेरठ (आरंभिक जीवन भाग -1 )


जब मुझे रहने के लिए गाय का तबेला दिखाया गया
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एक जमाना वो था जब फर्स्ट डिविजन आना बहुत बड़ी होती थी | आज तो सौ प्रतिशत अंक भी आ जाये तो लोग प्रतिक्रिया नहीं करते | उसी युग के सन 1970 में जब आठवीं की बोर्ड की परीक्षा फर्स्ट डिवीजन में पास की तो घर परिवार के लोग बहुत प्रसन्न हुए | और हम एक पढ़ाकू बालक के रूप में स्थापित हो गये | अपनी बोर्ड की मार्कशीट लेकर जब कुंद-कुंद जैन इंटर कॉलेज,खतौली गये तो हमें उन्होंने तुरंत ही नवीं कक्षा में दाखिला देदिया | मेरा छठी से आठवीं तक का सहपाठी Chaman Singh जो पढने में मुझसे भी अच्छा था उसने भी वहीँ एडमिशन ले लिया। दो पुराने मित्र नए स्कूल में साथ पढेंगे ,यह एक सुखद अनुभूति हम दोनों को हो रही थी | स्कूल का नया सत्र शुरू होने में थोडा समय था क्योंकि उस समय दाखिले चल रहे थे |मेरे पिता जी के एक अभिन्न मित्र थे जिन्हें घर में हम लोग धीमान साहेब कहते थे ,| धीमान साहेब उस समय मेरठ के इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल (जिला शिक्षा अधिकारी) थे । धीमान साहेब को हम बच्चों की उन्नति की चिंता बहुत करते थे,विशेषकर मेरी। इसी बीच पिताजी उनसे मिलने गए तो जाते ही उन्होंने मेरा रिजल्ट और नवी में कहाँ एडमिशन कराया ,पूछा | मेरे कुंद कुंद जैन इंटर कॉलेज,खतौली में दाखिले के विषय में पिताजी ने बता दिया। वो नाराज होकर बोले ,मास्साब आपने रामकिशोर को वहाँ क्यों एडमिट किया। वह जीआईसी(राजकीय इंटरमीडिएट कालेज ) ,मेरठ में पढ़ेगा। कहकर उन्होंने अपने चपरासी को जीआईसी से दाखिले का फार्म मंगवाया और भरकर भिजवा भी दिया। अरे साहेव,वहाँ तो प्रवेश के लिए इंग्लिश ,मैथ्स ओर साइंस में टेस्ट देना पड़ा । वैसे तो निश्चिन्त था कि मेरी तीन विषयों में डिस्टिंक्शन है ,प्रवेश हो ही जायेगा ,फिर भी परीक्षा ही परीक्षा होती है |ऊंट न जाने किस करवट बैठ जाये | नियत तिथि पर सूचि लगी | सूची में नाम देखने वालों की भीड़ उमड़ी थी। आखिर थोड़ी धक्का मुक्की के बाद चयनित छात्रों की सूची में मेरा नाम बारहवें नम्बर पर पढने को मिल ही गया। जीआईसी उस ज़माने का प्रीमियर स्कूल हुआ करता था | मैं डॉक्टर बनना चाहता था इसलिये हिंदी इंग्लिश मैथ्स ,साइंस और बायोलॉजी विषय लिए । डॉक्टर वाला स्टेथेस्कोप गले में डालने की बड़ी तमन्ना थी। इंसानियत की सेवा का जज्बा था उस समय मन में। स्कूल का समय प्रातः सात बजे का था,इसलिये रोज ट्रेन से समय पर नहीं आ सकता था।अब प्रश्न था कि शहर में रहे तो कहाँ रहे ? जीआईसी में हॉस्टल तो था किन्तु उसकी फीस हमारे हिसाब से अधिक थी जिसे वहन करने में पिताजी असमर्थ थे | कमरा अलग लेकर रहना भी भारी खर्चे का सबब था | पिताजी को याद आया कि सुभाष नगर में रहने वाले एक रिश्तेदार शिवकुमार शर्मा जी रहते है तो उनसे बात की। उन्होंने कहा कोई बात नहीं । आपका बच्चा मेरा ही बच्चा ही है। पिताजी ने उनसे मेरी रहने की जगह दिखाने के लिए कहा। तो वो हम दोनों को अपने घर के अलग किन्तु निकट ही एक जगह ले गए । उन्होंने आहाते का दरवाजा खोला तो वह उनकी गाय का तबेला था | उनकी गाय बंधी हुई नज़र आई और कमरा वगैरा कोई था नहीं । वो कहने लगे कि घर पर हमारे रहने के लिए ही जगह कम पड़ती है। लड़का यहीं इस गाय वाले कमरे में एक तरफ खाट ड़ालकर रह लेगा। वहाँ के पवित्र वातावरण में गोबर की गंध घुली हुई थी। मूत्र की बदबू आ रही थी | मैंने तुरंत पिताजी के कान में कहा कि यहाँ मैं कैसे रहूँगा | गाय कभी गोबर करेगी तो कभी पेशाब से भीजी पूंछ से मक्खी उड़ाएगी तो सब मेरे ऊपर ही आएगा । मैं यहाँ बिलकुल नहीं रह सकता। पिताजी ने शिवकुमार शर्मा जी से कहा कि ठीक है। हम जल्दी ही सामान ले आयेंगे | कहकर हम घर आ गए,किन्तु वहां गए नहीं |
क्रमश:
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Ramkishore Upadhyay

Wednesday, 3 June 2020

सेनिटाइजर
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फटी चादर ओढ़े
पांव भी लंबे -लंबे
बिल्कुल गवारों जैसे लिए
अरे ये तो आ गए राजमहल के निकट
न मुंह पर डिज़ाइनर मास्क
न लिनेन की कमीज
न पेंट पहनने की तमीज
अमीरों की उतरन की गठरी सर पर रखे
कौन हैं ये आदमी विकट
क्या कोरोना का इलाज मांग रहें हैं ?
उन्हें कह दो अभी शोध जारी है
अगले लॉकडाउन की तैयारी है

नहीं मालिक !!
ये आदमी नहीं ,आदमी के भूत हैं
उन्हीं आदमियों के
जो ट्रेन से कटकर
जो  भूख से सड़कर
जो प्यास से तड़पकर
मर गए थे ,,आज
सिके हुए पांव के  तलुवे लेकर
अपनी बिखरी  हुई रोटियां मांगने आये हैं

कह दो ये अब केस प्रोपर्टी हैं
फैसला होने तक रिलीज नहीं होंगी

मालिक! फिलहाल इन्हें
सेनिटाइजर दे दिया है
वैसे भी ये आदमी नहीं,,, भूत हैं
अब ये कोरोना की तरह अदृश्य हो जाएंगे
वैसे सारे जिंदा लोग
अपने मनपसंद सीरियल देख रहें हैं
आप म्युनिस्पैलिटी का चुनाव  जीत रहे हैं
अब आराम से सो जाएं,
कल वरचुल रैली भी है
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रामकिशोर उपाध्याय

Saturday, 30 May 2020


संस्मरण -17 मई की फेसबुक पोस्ट से आगे
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जब -----गधा बनाया
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जब मैंने जोधपुर में पहली बार नौकरी जॉइन की तो यह शहर तब विकसित हो रहा था। ठीक उसी तरह जैसे भारत की जवानी परवान चढ़ रही थी। मन में नई उमंग और आशा की गागर लेकर मैं भी जीवन के समंदर में अपनी नन्ही सी नांव लेकर उतर रहा था। समंदर इसलिये कह रहा हूँ कि इसका ओर -छोर किसी को पता नहीं चलता । सागर विशालता के साथ -साथ अनिश्चितता का भी प्रतीक है। उर्ध्वगामी चेतना लेकर सम्पूर्ण मानवता इस सागर में जीवन के माणिक और मोती प्राप्ति हेतु उतरने के लिए सदसंकल्पित है। जोधपुर के लोग भी इसी दिशा में बढ़ रहे थे। वे अब भीड़भाड़ के मौहल्ले छोड़कर नई बस्तियां बसा रहे थे,ताकि खुली हवा का आनंद ले सके। अपने बढ़ते परिवारों को एक अच्छा रहन -सहन दे सकें। राजशाही के दौरान बने पोल और परकोटों के बाहर इसी लक्ष्य की पूर्ति हेतु रातानाडा,भगत की कोठी,वासनी,शास्त्रीनगर आदि नई बस्तियां आकार ग्रहण कर रहीं थी। शास्त्रीनगर जोधपुर इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट की कालोनी है। शाम को खाने- पीने के बाद हम यू.पी.,बिहार और बंगाल के प्रवासी युवा रेलवे कर्मी शास्त्री सर्किल पर इकट्ठा होते। भारतभूषण शर्मा, शैलेन्द्र शर्मा,संतपाल स्वरूप,सिद्धनाथ,जी.पी. पाण्डेय,तरुण चटर्जी,दिलीप मुखर्जी ,आर.एन.सहाय,शशि प्रकाश,विनोद दीक्षित, आदि का यह गिरोह रात के बारह बजे तक चुटकुले,गाने गाना और अच्छी बुरी मजाक खूब करते रहते ।तब टीवी का जमाना था नहीं । आज के इस दौर को देखे तो टीवी का न होना शायद अच्छा ही था । जब नींद आने लगती गिरोह के सदस्य धीरे-धीरे सर्किल से गायब हो जाते। यह शायद उम्र के अनुकूल ही आचरण था। उस समय तक जोधपुर में सामन्तवाद का प्रभाव दिखाई देता था जो उनकी जीवन शैली में ऐसे घुल गया था जैसे दूध में पानी या शक्कर , जबकि उत्तरप्रदेश या इतर राज्यों के युवा तो लोकतांत्रिक भारत में पैदा हुये थे । "हुकुम सा" कहना यहां व्यवस्था के प्रति सम्मान प्रदर्शन था। मैं भी धीरे -धीरे मारवाड़ी सीखने लगा और फिर उनसे उनकी बोली में बतियाने लगा।सबको अपनी बोली-भाषा से प्रेम होना स्वाभाविक है। शब्द कानों के रास्ते से दिल को छूते है तो शांत झील में हलचल पैदा करते है। पानी पर जमी पूर्वाग्रहों की गहरी हरी काई को भी संवाद हटा देता है।जोधपुर के अधिकांश लोग,धार्मिक, बहुत सज्जन,सरल ,सहज और मिष्टभाषी आज भी ।मेरी पटरी उनसे बैठने में देर नहीं लगी । वे मुझे स्नेह देने लगे।फिर मुझे जो कार्य दिया गया था ,उसके लिये कार्यालय का हर कर्मचारी और अधिकारी मुझसे संपर्क करता था।वहां मेरे बॉस थे देवकरण शर्मा । उनके पिताजी आगरा से आकर जोधपुर रेलवे में स्टेशन मास्टर नियुक्त हुए थे और फिर वहीं बस गए। वे उनकी दूसरी पीढ़ी थी जो रेलवे में सेवा दे रही थी। देवकरण शर्मा जी का मुझपर असीम स्नेह रहा। उन्होंने मुझे पुत्र की तरह रखा और मेरा कार्यालय के काम ही नहीं ,बल्कि जीवन के कई गुर अनजाने में सिखा गए। उनका हृदय पवित्र और जीवन सरल था। धर्म में पूर्ण आस्थावान शर्मा जी को मैंने शीघ्र ही कार्यालय की चिंताओं से मुक्त कर दिया। वे भी अल्पकाल की प्रगति से संतुष्ट थे और सभी को कहते थे कि यह लड़का बहुत मेहनती और जिम्मेदार है। विभागीय ट्रेनिंग में जब मैंने टॉप किया तो मेरे मुख्य अधिकारी श्री लाल चंद गेरा भी बहुत प्रसन्न हुए और जब उन्होंने कहा 'तुम मेरे ऑफिस की क्रीम हो " सुनकर हृदय गदगद हो उठा।
हमारा बैच दफ्तर के काम को बढ़िया ढंग से करता था और साथ में अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेता था। रेलवे का कार्यक्रम हो या शहर का ,हम शिरकत करने का जुगाड़ निकाल ही लेते थे। उस जमाने मे टाउन हॉल में काफी साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। कालूराम प्रजापति उस समय लोकप्रिय लोक गायक थे। एक बार उन्होंने टाउन हॉल में अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किया ।हम भी स्टेज पर उनकी टीम में जुगाड़ कर बैठ गए। आज यह गीत यूट्यूब पर उपलब्ध है।आप भी आनंद लिए बिना न रहेंगे ।।




फिर कुछ दिन बाद एक कव्वाली का कार्यक्रम हुआ तो मैं और भारतभूषण शर्मा बाकायदा कव्वालों की ड्रेस में बैठे और कव्वाली में सुर से सुर मिलाया। कव्वाली के बोल थे ,,,
"सालाहसाल की जुस्तजू ने हमें चंद आँसू दिए चश्मे तर के लिए
दुश्मनों पर तुम्हारी इनायत रही ,हम तरसते रहे एक नज़र के लिए '
एक बार जोधपुर के रेलवे इंस्टिट्यूट में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ। उसने मैंने और भारत भूषण ने एक हास्य नाटक करने के लिये निवेदन किया। स्क्रिप्ट पढ़ने के बाद अनुमति मिली और मंचन कुछ इस तरह था।
(स्टेज से पर्दा उठता है। एक डॉक्टर की वर्दी पहनकर मैं एक यंत्र लेकर उपस्थित होता हूँ। यह यंत्र बजाने वाला बोंगो था । बोंगों में लंबे लंबे धागे बन्धे हुए थे और उसमें कुछ कागज़ के चौकोर टुकड़े फंसा रखे थे)
डॉक्टर : दोस्तो ,मेहरबानो, कद्रदानों आप सभी को सलाम ,नमस्ते ,आदाब और गुडईवनिंग है ।आज हम आपके सामने एक नया अविष्कार ले कर आये है। हमारी फार्मा कम्पनी ने एक ऐसे यंत्र का अविष्कार किया है जिसके द्वारा आपको बिना कोई टेस्ट कराए बीमारी का पता लग जायेगा।
दर्शकों की उत्सुकता जगती है। प्रश्न उछला,क्या करना होगा।
डॉक्टर: आपको कुछ नहीं करना होगा । बस इस धागे को अपनी अपनी सीधे हाथ की कलाई पर बांधना होंगा। एक पर्ची हम दे रहे है ।इसपर अपना नाम लिखकर हमे दे दें। हम इसे मशीन में फिट किये देते है। दो मिनट बाद ही इस मशीन में लगी आपकी नाम वाली पर्ची पर आपकी बीमारी यदि कोई है ,का नाम छप जाएगा।
(कुछ लोगों ने झिझकते हुए तो कुछ ने उत्सुकतावश धागा कलाई पर बांध लिया और नाम भी लिखकर दे दिया । डीएस,जोधपुर ( जिसे अब डीआरएम कहा जाता है ) जो कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे,उन्होंने भी धागा बांध लिया । पर्चियां मशीन में लगते ही, भारत भूषण शर्मा जो धोबी का रोल कर रहे थे, ने जोर से आवाज लगाई
"अबे ओ रामू, मेरे गधे कहाँ है?सुबह तुझे चराने के लिए दिए थे। रात हो गयी । अभी तक नहीं दिख रहे हैं ?
"मालिक,यहीं तो हैं सारे ।(कलाई में बंधे धागों वालो की ओर इशारा करते हुए कहा )मालिक ध्यान से देखो,सब बंधे तो पड़े हैं।"
मेरे यह कहते ही हॉल से हंसी का फव्वारा हाल में फूटा और पर्दा गिर गया। जिनके हाथ में धागे बन्धे थे ,सभी झेंप गए। लेकिन बाद में सभी मे प्ले की तारीफ की।
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रामकिशोर उपाध्याय
क्रमशः