Monday, 30 December 2013




क्या तुम सुन रहे हो ,,,, वर्ष 2014......
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एक ख़्वाब सा
बुन रही हैं ये आंखे
अभी तो तुम्हे देखा ही नहीं.....

एक घरोंदा सा
रेत का बना रही हैं ये उँगलियाँ
कई कामनाओं  का
जिन्हें अभी सोचा ही नहीं.......

एक खियाबां सा
खिल रही हैं मेरे पिछवाड़े में
मेरी वो सब आरजुएं
जिन्हें अभी कहा ही नहीं .....

क्या तुम सुन रहे हो ,,,,
वर्ष 2014...................
सुप्रभात मित्रो,,,बीते रहे इस साल को सलाम ,,,आदाब मेरा ..............

तुम लौट के आना ....
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गुजरे हुए लम्हों .....

कभी तुम हसीं लगे
कभी मेरी हंसी ले गए
कभी तुम कसमसायें
कभी तुम मुस्कराएं
कभी तुम दूर जाते लगे
कभी तुम पास आते लगे
पर हमेशा से ही मेरे पास से गुजरे
तुम मेरे गुजरे हुए लम्हों ......

एक मैं ही था नादाँ
एक मैं तो था ही जाहिल
तुम तो हमेशा ही रहे कामिल
अब एक बरस की बात कहूँ
बीते सारे बरसों की दास्ताँ कहूँ
तुम बस मेरे थे
तुम मेरे ही बन के रहना
बेशक तुम बुरे थे
या तुम भले थे
मेरी हर सांस के साथ
आगे भी जुड़े रहना
बस और नही कुछ कहना.......

रामकिशोर उपाध्याय
परिचय /पहचान
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परिचय पवन का ....
उड़ते सूखे पत्ते और गुजरती आँधियां
खुशबू का अस्तित्व.....
उपवन के मध्य में अलौकिक अनुभूति
स्पर्श का प्रभाव .....
किसी पुष्प से हाथ मिला लेना
इतने अनभिज्ञ तो नहीं हैं आप !
फिर क्यों हो उत्सुक मेरी पहचान के 
मैं वही हाड-मांस का मिटटी का एक पुतला
धूप में जलता श्रमिक,
अपने लक्ष्य की यात्रा पर पथिक
समय से सीख लेता प्रशिक्षु
और व्यथित चितेरा.....
जीवन के रंगों का जिन्हें लेखनी से बिखेरा
एक प्रश्न ...अगर प्रेम करते हो ?
कभी आंखे मीची होगी
वो अंतर्मन में महकती गंध
और स्निग्ध स्पर्श का अनुभव
वही सूक्ष्म,जितना स्थूल ..
‘मैं’ ही तो हूँ ......

रामकिशोर उपाध्याय

Sunday, 22 December 2013

मुक्तक और चंद अशआर

और भी ख़त हैं मेरे इजहार-ए-गम के आलावा,
ये और बात हैं कि उन्हें मैंने भेजा ही नहीं तुझे.

के कैद हो गयी ख्वाहिशे उसी लिफाफे में आज,
बरसों पहले भेजा था जिसमें तूने पहला पैगाम.

मैं एकबार सोच भी लूँ तू नहीं हैं गुनाहगार,
मगर तेरी फितरत से ये भरोसा होता नहीं.

ऐ खुदा !!!!!

जबतक नहीं हैं*मेरे घर में एक अदद झाड़ू,
तबतक तेरा पथ अपनी पलकों से ही बुहारु.

वो अपनी वफा की कसमें खाकर यकीं दिलाते रहे,
किसी के जुल्मों की दास्ताँ हमारे होठों पे ना आई।

के रात काफी ढल चुकी तुम सितारे बीन लो, 
आसमां को आज मैंने महखाने जाते देखा हैं.

लोग हो इमानदार और चोर कहे करो मुझे गिरफ्तार,
भैयाजी तभी मैं बनाऊंगा यहाँ इस दिल्ली में सरकार.

के इतना मत भी रुला मुझे कि अश्क रूठ जाये,
ये झील आँखों की मुझसे यूँही सुखाई ना जाएगी.

के तुम ना आये मुझे इस बात का शिकवा नहीं,
मगर जो गुल मुरझा गये हैं उन्हें क्या जवाब दे.

तूने देखी कशिश मेरी,मैंने तेरी वफ़ा,
किनारे हैं तो चलना होगा साथ साथ.

सोचते हैं मुझे चाँद और सितारे ही चाहिए,गफ़लत में हैं वो,
जमीन से निकला बिरवा हूँ,आसमान देखना मेरी आदत हैं.

जब मिटटी ने हंसकर कहा मिलते हैं सब मुझमे,
सर पे अपने खाक लिए घूमता हूँ उस दिन से मैं.

जब रोते-रोते हिज्र में मैं अश्क पी गया,
वो कहने लगे चढ़ गया शराब का खुमार

कल यूँ ही जब मैं मयकदा पंहुचा,
बोतलें भरी थी और रिंद बेहोश थे

ख्वाहिशें इतनी बा-वफ़ा होंगी नहीं था मालूम,
कि आखिरी साँस तक मेरे जिस्म को कुरेदेंगी.

के इन बड़े बड़े ठन्डे कमरों से मुझे क्या लेना देना,,,मेरे मुसाहिब, 
आम आदमी हूँ धूप से झुलसता,मेरे साथ जमीन पे बैठकर सोचो.


उन्होंने उनकी खराब तबियत का हाल ऐसा पूछा,
कि रोते-रोते अपनी ही दास्तान-ए-दर्द सुना गए.

के आज फिर सूरज ने दस्तक दी और हो गया सवेरा,
उठे तो देखा तकिये के नीचे रखा था ख़त लिखा तेरा. 

मैं हमसफ़र तो नहीं हो सका तेरा,
पर हर सफ़र में साथ हैं हाथ मेरा.

बेशक हमतुम दोपहर में मिले हो,
ना ढले मुहब्बत का जज्बात मेरा.

जीवन में मेरे जब पसरा हो अँधेरा,
तू 
मैं हमसफ़र तो नहीं हो सका तेरा,


पर हर सफ़र में साथ हैं हाथ मेरा.
सबा बन जगा देना सोया हैं सवेरा. 

के मैं ढूंढता रहा अल्फाज़ उस शख्स के लिए,
जो खुद अपनी तस्वीर में कैद होके रह गया.



के उनकी निगाह-ए-करम का मैं शुक्रगुज़ार हूँ,
वो देखते हैं तो अहसास होता हैं एक वज़ूद का.

एकके कल गुलाब को हँसते पाया और आज किसी का शबाब,
ये खुदा का ही कमाल था जो अलग-अलग रूप में निखरा.

एक प्रयास 
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झील में भी उबाल हैं 
यूँ तेरा ही*ख़याल हैं

लहरों की तो मौज हैं, 
बस साहिल बेहाल हैं

गर्दिशों हो विदा*यहाँ,
खुशियों का धमाल हैं.

उत्तर सभी हैं*पुराने,
अब ये*नए सवाल हैं. 


के बाती जल गयी और जल गया सब तेल,
माटी की काया का माटी में मिलने का खेल.

जबतक तम हैं छाया दिवाली का ये सन्देश,
के मिट्टी,बाती और तेल का होता रहेगा मेल. 


ये जरुरी तो नहीं कि चराग जले और दिवाली हो,
कभी खुद को भी जलना पड़ता हैं रौशनी के लिए. 




 मुक्तक : जिसे मेरे अनन्य मित्र ने अनुमोदित किया हैं .
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किश्ती ना थी मुकद्दर में तो नाख़ुदा से क्या गिला,
जब डूबना बदा था तो बेरहम मौज़ों से क्या गिला,
एक हम ही नहीं हुए हैं हुस्न की जुल्मत के शिकार,
मोहब्बत में फ़ना होने का हैं यह पुराना सिलसिला.

जब वो बज्म से उठने ही लगे तो हम क्या टोकते,
जब हाथ छुड़ाके चलने ही लगे तो हम क्या रोकते,
सदियों से अपने उस रिश्ते का हवाला दिया उनको,
फिर भी कोई बात न बन सकी तो हम क्या बोलते. 

याद 
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वो कल की याद दबाये बस मैं चलता जाता हूँ,
हुजूम खडा, परन्तु पथ पर तुमको ही पाता हूँ,
इन भरी-भरी आँखों के सागर को क्या कहिये,
तुम जाने को कहती ये झट से छलक जाता हैं.

एक चक्रपाणि ,एक हैं त्रिशूलधारी,
एक ओढरदानी,तो वही गदाधारी,
एक हैं विराजता कमल के दल पर,
भिन्न रूप, जनक,पालक व संहारी.

कहीं आप भी मेरी तरह गाफ़िल तो नहीं,
भंवर में उलझे शख्स का साहिल तो नहीं, 
कि जिसे आप बड़ा मासूम समझ रहे हो,
कहीं वही तुम्हारा हसीन क़ातिल तो नहीं.

आओं हम कुछ धूप गुनगुना ले, 
साये लम्बे हो जाये इससे पहले, 
इससे पहले ठण्ड बढ़ जाये यहाँ,
चाँद को दूल्हा बना घर बुला ले. 


र राह पर तुम खड़े हों बाहे फैलाये,
जैसे हो बंधन में ये समस्त दिशायें,
नूतन सा उत्साह भरा धमनियों में,
मिलन का संगीत बजाती हैं शिरायें. 


के आज बरसों बाद नहाके लटें सुलझाई, 
फिर बिंदी और हथेली पर मेहंदी*लगाई,
चूड़ी, कंगन, हार, पांव में पायल सजाई,
छोड़े ना आईना,उन्हें मेरी चिट्ठी जो आई. 



फिर भी दिवाली हैं?
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जब माता तेरे घर में नहीं कोई कमी हैं,
अभी भी हर इंसान की आंख में नमी हैं,
यहाँ दौलत के अम्बार लगे हैं फिर क्यूँ,
हाथ को काम भूखे को रोटी की कमी हैं.


दीवाली मुबारक 
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के मुबारक हो !मुबारक हो !सुहानी दीवाली,
हर घर हो जगमग दीपों की हो सजी थाली, 
देश है भारत हमारा,करनी हैं हमें रखवाली, 
हो मुबारक हिन्दू को, मुस्लिम को दीवाली।



के दिल में रखा*खाली एक कोना,
उसी में वक़्त बेवक्त हँसना रोना,
नदी जैसी खुशी को वहीँ डुबो देना, 
उसी में समुद्र जैसे दुःख को धोना. 



एक मैं और एक तू 
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मेरी नज़र में बसी एक तू ही तो हैं,
मेरी डगर में खड़ी एक तू ही तो हैं,
इश्क की अदालत मे गुनाहगार दो, 

बस एक मैं हूँ और एक तू ही तो हैं 

कहता काम नहीं हैं सताता,
उसको राम नाम ही भाता,
रहता हैं धुन में,पर अपना,
नाम वो कामदेव बतलाता.

हम चुपचाप बैठे रहे मगर हलाल हो गए,
वो बेरंग आये थे यहाँ मगर लाल हो गए,
नहीं समझ सका मैं कैसे थे वो तिजारती, 
जो आये खाली जेब पर मालामाल हो गए.

एक मुक्तक 
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खौफ़ मत खा बस बढ़ चल,
ठोकर खाकर भी जा संभल,
मंजिल को पाना हैं अगर तो 
राह के काँटों को तू दे कुचल.


मेरे अहसास 
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चाँद से 
सलोने अहसास 
एक सूरज से 
गरम हाथों के
एक सितारों सी
महफ़िल में सजे
मेरे दोस्तों जैसी
जब भी चले
वो साथ ही थे
नभ पे
नभ के नीचे
ना धूप से दुबके
ना चांदनी में छिटके
ना बारिश में बहे
बस दिल से निकलकर
हाथ से होते हुए
तुम्हारे करीब आये
जब बढ़ाया नरम
हाथ अपना
दोनों हाथ जोड़कर
सर झुकाकर
द्वार पर आपके
खड़े हो गए
मेरे चाँद से सलोने
अहसाह ….........
तुम्हारी छाया में
सर छिपाने को ….....

रामकिशोर उपाध्याय
22.12.2013

Thursday, 19 December 2013

तितली और अलि 
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कुछ 
लोग सोचते हैं 
कि खिलते पुष्प 
देख कर उपवन में
आती हैं तितलियां
कुछ पराग चुनने
कुछ उनमे छिप जाने को
और
अलि भी
मकरंद का रसास्वादन के लिए ही
पुष्पों पर मंडराते हैं
शायद यह सत्य नहीं हैं ......
तितली न हो
तो परागण कैसे होगा
फिर नए पुष्प कैसे खिलेंगे
और प्रकृति का श्रृंगार
कैसे होगा
पुष्प में
आकर्षण कौन जगायेगा
फिर
क्यों पूछते हैं लोग
एक असहज प्रश्न
कि उपवन में आते ही क्यों हैं
अलि ...............
मैं
परन्तु
न तितली हूँ
न अलि हूँ

रामकिशोर उपाध्याय
अन्दर की प्यास 
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बूंद हैं 
घट हैं 
ताल हैं 
झरना हैं 
नदी हैं 
सागर हैं 
कहीं वह खारा हैं 
कहीं वह नमकीन हैं 
कहीं मीठा हैं
पीने योग्य न भी हो
बना लेते हैं
पी रहे हैं हम सब
सुबह और शाम
आज से नहीं सदियों से
कभी वह धरा से निकलता
कभी बादलों से गिरता
कभी आँखों से भी बहता
कभी उसके लिए झगड़ता
कभी मर भी जाता उसके लिए
अन्दर बाहर
पानी ही पानी हैं
फिर भी तृषित हैं
मानव और उसका मन
बुझाने को मारा मारा फिरता
किसी का चरण चुम्बन करता
किसी के आगे नतमस्तक होता
पशु भी बुझा लेता हैं
बाहर की प्यास ..
परन्तु
ये अन्दर की प्यास भी
बड़ी अजीब हैं ….

रामकिशोर उपाध्याय
प्रायश्चित 
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नहीं 
होता 
इतना सहज 
किसी को अपना कह देना 
कभी -कभी यह यात्रा
एक क्षण में पूरी हो जाती हैं
कभी -कभी यह यंत्रणा
बन युगों तक सहनी पड़ती हैं
कई -कई जन्मों तक
साहस नही जुटा पाता मन
क्योंकि मन तो मन ही हैं
सम्मान
तो करना ही होगा मन का
प्रेम हैं .......
तो प्रतीक्षा भी हैं
फिर रोज ख़त लिखे
प्रेम का अंकुर फूटने तक
परन्तु प्रेम ना मिलने पर
हैं कहाँ
प्रायश्चित .............

रामकिशोर उपाध्याय
















भिलाषा 
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कई बार 
जीवित प्रश्न 
उलझ जाते हैं निर्जीव सन्दर्भों में 
जैसे फीते में बंधी
लाल रंग की फाइल में
कोई प्रतिकूल या अनुकूल
लिखी गयी गोपनीय टिप्पणी
अपने प्रमोशन के विषय में
या सालाना परफॉरमेंस रिपोर्ट
में दी गयी ग्रेडिंग जैसे
शायद यही हाल होता होगा
अपनी प्रेमिका का
मन टटोलना ....
उतना ही मुश्किल
पर बंधी फाइल में लिखी
टिप्पणी बदल भी सकती हैं
किन्तु प्रेमिका के
ह्रदय में अंकित भाव
बदलने में कई युग लगते हैं
फिर भी टिप्पणी के बदलने
जैसी अभिलाषा
जीवित रखती हैं
उन अनछुई कल्पनाओं को
जिन्हें मनुष्य
तलाशता हैं
तराशता हैं
विश्राम में ......
अल्प विराम में ......

रामकिशोर उपाध्याय

Wednesday, 11 December 2013
















बस कुछ और लम्हे बाकी हैं ..
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फलक पर
छा गए हैं अब्र
नहीं हैं नामोंनिशान आफ़ताब का 
दूर तलक कहीं
बहती नसीम कर रही हैं
हलचल ठहरी झील के आब में
यहाँ तो
ना कोई शोर
ना ही हरकत
ये वक़्त की इक्तिज़ा हैं
कि एक इत्तिहाद कायम हो
कोई कौल और करार हो
ख़याल और खुमार में
ख्वाहिशों के दस्तूर में
गोशा –गोशा पुरनूर हो
हैं हर शजर तैयार
बनके गवाह
भंवरे भी गुनगुना रहे हैं
पास की खियाबां में
गिरह खोल दो खलिश की
अब और खफ़ा होना मुनासिब नहीं हैं
उठाके गेसू रूबरू हो जाओ
खाली पड़ी ये बेंच
भी एक इशारा हैं
कि आओ पास बैठो
कुदरत की ये चिलमन
उठने में
बस
कुछ ही लम्हे बाकी हैं ..........
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रामकिशोर उपाध्याय

Tuesday, 26 November 2013

"शीर्षक अभिव्यक्ति"-84 में उन्वान 
***तन्हाई/सन्नाटा/सूनापन/एकांत/अकेलापन*** 

यही हैं मेरा एकाकीपन ..........
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क्यूँ पूछते हो
मेरा एकाकीपन.................
क्यूँ हैं खाली मेरे अन्तर में
सबसे व्यस्त कोना ....
एक सिसकती ऐसी दास्तान
जिसमे ना पहले और
ना बाद में हैं कुछ पाना
बस खोना ही खोना...
वो बस रह गयी एक ऐसी कहानी, एक पहेली
जिसमे वो ना बन सकी मेरी सहेली
फिर भी मेरी तन्हाई
इस कदर उम्मीद से लबरेज थी
कि कभी आहट पर
कि कभी चाहत पर
वो छन-छन करती
दौड़ती जाती द्वार तक
और पायल तुड़ा कर
घायल पांवों से लौट आती अकेली
लोग सोचते रहे
कि हैं असफल प्रेम का विलाप
बस गया होगा ह्रदय में संताप
यह घटित होता हैं
जब मेरी प्रेमिका -मेरी कविता
नहीं बनती
नहीं संवरती हैं
जब शब्द मुकर जाते हैं
कागज पर उतरने को
और कंठ रुंध जाता
गीतों को वाणी देने को
यह हैं मेरी सृजन-शून्यता
यही हैं मेरा एकाकीपन ..........

रामकिशोर उपाध्याय

Tuesday, 19 November 2013

मैं निराश नहीं हूँ
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अचानक
क्या हुआ
जो ह्रदय मैंने आपसे लिया था 
वह
ग्लेशियर पर पड़े
बर्फ सा तो नहीं था
वह तो स्पंदित था
वह तो जीवंत था
वह तो मेरी हर गर्म सांस से
क्रीड़ा में तल्लीन हो जाता
एक उन्मुक्त परिंदा था
वह तो
मेरी हर आहट  पर
मुझे देखने द्वार तक दौड़ा आता था
मेरे ह्रदय के निकट बैठ
हर दिन नये गीत गुनगुनाता
नित नूतन स्वप्न सजाता
हर रात मिलन की बाट जोहता
बेरोकटोक बाते करता मुझसे
कई सवाल करता था
जीने के
प्रत्येक क्षण
उत्सव से पोषित मस्त
धमनियों में  उदात्त भावों से
अंग-अंग में अविराम अद्भुत  स्फुरण करता
वो इतना निष्ठुर
वो इतना क्लांत
वो इतना शांत
तो कदापि नहीं था
यह वह  ह्रदय तो नहीं
शायद दूरियां से त्रस्त
किसी मांस का लोथड़ा हो
परन्तु मेरा प्रयास रहेगा
यह बर्फ आगामी बसंत से पूर्व
पिघल जाये
और यह ह्रदय
फिर से मेरे लिए
धड़कने लगे..
जीवन में ऋतु-चक्र तो आते रहते हैं
और कम से कम इस स्थिति से
मैं
निराश नहीं हूँ..... 

रामकिशोर उपाध्याय



 शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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आकाश
ने अपनी असमानी नीली
जब छतरी खोली
टिमटिमाते तारे
भरभरा कर गिरते देख
पेड़ों ने अपनी शाखाओं  को कहा
कि जाओ तारों को समेट लो
कल सुबह उन्हें
फूल बनकर खिलना हैं
फिर करना  श्रृंगार
शक्ति का
विरह से तप्त
रमणी का
ओस  से जब फूल भारी हो जाये
तो उनसे कहना
कि वे झरे नहीं
अपितु  नमी को
उत्सर्जित कर अविकल बह जाने दे
झरना बनकर जीवन की प्यास बुझाने हेतु
और फिर लहरे बनकर
वे सागर का हार बन जाये
यह देख विरह में नभ ने  एक ध्वनि निकाली
सागर की शांत लहरे
संकेत पाकर तट से करने लगी ठिठोली
चंचल चन्द्र भी शरारत के मूड में आ गया
चंद्रमा की सोलहवीं कला पूर्ण हो निकली
वह पूर्णिमा की रात थी
लहरे तीव्र हो चली
मानों नभ को दे रही हो
उपनिषद का सन्देश
 पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते,
पूर्णश्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
 शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

रामकिशोर उपाध्याय


Tuesday, 12 November 2013




‘मैं अमर होना नहीं चाहती’

ओंस में 
भीगी हुई पंखुडियां सी लिए 
यह देह ..........
किस देहरी पर धरु 
यहाँ हर ओर ताप और संताप हैं
पुन्य को खोजती-खोजती
हो गयी पापमय
और कल ही ली हैं
शपथ जीने की पोप से
यहाँ के ईश्वर ने
कहलवाया हैं कि देहरी भी
वर्जित हो गयी
हिरन्यकश्यप के वध के उपरांत
अमर तो
होना भी नहीं चाहती मैं .......

रामकिशोर उपाध्याय


























गुलाब
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बहुत प्रयास किया
कि कुछ लिख दूँ
शब्द नहीं मिले ..
पुस्तकें देखी
कुछ शब्द उठाये
कुछ को बिछौना बनाया
कुछ को तकिया
कुछ चादर बनकर फ़ैल गए
फिर भी कुछ बचे रह गए
यह सोचकर उन्हें उपयोग नहीं किया
कि सुबह नाश्ते पर देखेंगे ...
ये बचे शब्द रोने लगे
मैंने कहा रोओ मत ..
जाओ मुक्त हो जाओ
और
तितली बन जाना
कुछ भ्रमर बन जाना
या फिर
कल किसी का श्रंगार बन
जीवन महका देना ..
सुबह ..
देखा तो गुलाब खिले थे
मेरे मन आंगन में .....

रामकिशोर उपाध्याय

Monday, 11 November 2013




जीवन पथ 
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जीवन पथ 
बड़ा ही
सपाट ....
बड़ा ही
सीधा सरल ....
बस बीच-बीच में
कुछ गहरे गड्ढे
कुछ प्यारे -प्यारे मोड़ ............
कहीं बचते-बचाते चलते
कुछ को पार कर जाते
कुछ को जाते छोड़ ................

रामकिशोर उपाध्याय
कल्पना
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ये कल्पना ....
भी बड़ी अजीब होती हैं
बेखौफ ,बेलाग और बेहया
ना समय देखती
ना जगह देखती
ना सामने कौन हैं
ना दाएं बांयें कौन हैं
बस आ जाती हैं
बिन पैरों के
बिन पंखों के
और चलकर
एक घरौंदा
एक नीड के लिए
एक बया की तरह
बस बुनती रहती हैं
समय को
झंझावातों को
निरंतर चुनौती देती हुई.......
कल्पना ..........................

रामकिशोर उपाध्याय 

Thursday, 7 November 2013

के आज बरसों बाद नहाके लटें सुलझाई, 
फिर बिंदी और हथेली पर मेहंदी लगाई,
चूड़ी, कंगन, हार, पांव में पायल सजाई,
छोड़े ना आईना,मेरे आने की खबर जो आई

रामकिशोर उपाध्याय    

सितारों की कृपा -----------------



अब सूरज
ढल रहा हैं
आज भी व्यतीत होकर
कल अतीत हो जायेगा
रात घिर आयेगे
पर ये अँधेरे भी
इतने तो बुरे नहीं
स्वप्न तो बुने जा सकते हैं
इस काल में ............
आज फिर आज दीप जलेंगे
कुछ नरम तंतुओं को छुयेगी 
चांदनी ...
रचेगी एक नूतन कहानी
जो  साकार होगी
आज के कल में
और कल के आज में
यह नभ तो व्यस्त रहेगा
अपने उपहार बांटने में
रोज की तरह
अपने कुरते के बटन बंद कर लो
कोट का गला भी
चाहे तो टाई भी लगा लो ..
पेंट प्रेस करके पहन लो
कमीज का कालर गन्दा नही चलेगा
आकाश के सितारों को
आप चाक-चोबन्द लगने चाहिए
कृपा ...........
देते समय.


रामकिशोर उपाध्याय