Tuesday, 19 November 2013

 शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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आकाश
ने अपनी असमानी नीली
जब छतरी खोली
टिमटिमाते तारे
भरभरा कर गिरते देख
पेड़ों ने अपनी शाखाओं  को कहा
कि जाओ तारों को समेट लो
कल सुबह उन्हें
फूल बनकर खिलना हैं
फिर करना  श्रृंगार
शक्ति का
विरह से तप्त
रमणी का
ओस  से जब फूल भारी हो जाये
तो उनसे कहना
कि वे झरे नहीं
अपितु  नमी को
उत्सर्जित कर अविकल बह जाने दे
झरना बनकर जीवन की प्यास बुझाने हेतु
और फिर लहरे बनकर
वे सागर का हार बन जाये
यह देख विरह में नभ ने  एक ध्वनि निकाली
सागर की शांत लहरे
संकेत पाकर तट से करने लगी ठिठोली
चंचल चन्द्र भी शरारत के मूड में आ गया
चंद्रमा की सोलहवीं कला पूर्ण हो निकली
वह पूर्णिमा की रात थी
लहरे तीव्र हो चली
मानों नभ को दे रही हो
उपनिषद का सन्देश
 पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते,
पूर्णश्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
 शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

रामकिशोर उपाध्याय


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