Thursday, 26 June 2014

वो आ ही जाती !!!
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वो कभी ...
गली से आती
नुक्कड़ से आती
गति से आती
सड़क से आती
हवा से आती
तूफ़ान से आती
गर्दाब से आती
सिसकी से आती
चुभन से आती
खुशबू से आती
तंज से आती
रंज से आती
वस्ल से आती
हिज्र से आती
***
कभी -----
वफ़ा से निकलती
जफ़ा से निकलती
दर्द से निकलती
दश्त से निकलती
तन्हाई से निकलती
आशनाई से निकलती
तीरगी से निकलती
उजालों से निकलती
जुल्फ से निकलती
*
न जाने....
कहाँ कहाँ से आती
कहाँ कहाँ से निकलती
आती ही रहती
निकलती ही रहती
मेरे सूने से कैनवास पर कुछ रंग भरती
कुछ नगमे सुनाती
कुछ गुनगुनाती
कभी कभी मुझको रुलाती
कहीं कहीं हंसा भी जाती
बिन पूछे मेरी कलम को उठाकर चल पड़ती
और कागज़ पर आकार ले जाती
वो मेरी कविता
वो तुम्हारी कविता
वो हमसब की कविता
गरीब मजदूर की कविता
मजबूर की कविता
आम आदमी की कविता .....
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रामकिशोर उपाध्याय

लौ लगी
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दिल में लौ लगी
थोड़ा घी डालकर
दीये में
देव के सामने रख दिया
और रौ आने से पहले 

लौ बुझने न पाए
दीये को ज़िगर में छुपा लिया ...
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रामकिशोर उपाध्याय
धरती पे टहलते चाँद-तारे 
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कुछ कहीं 
गरम से अहसासों की धूप 
और किसी का 
चले आना यूँ ही नंगे पाँव 
बेतरतीब ख्यालों
का लगा हुआ एक शामियाना
और जिंदगी का
लगा देना किसी पे सबसे बड़ा दांव
**
काश यह संभव होता तो ....

आज ...
सुराख़ होते आसमान में सारे
और धरती पे टहलते चाँद-तारे
**
रामकिशोर उपाध्याय

Sunday, 22 June 2014


वह एक झील 


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वो एक दरिया के मानिंद 
बहती रही ...
कभी किनारे-किनारे 
कभी मझधारे
कभी पत्थरों से टकराती
तो पिघलते ग्लेशियर से गले लगकर मिलती
कश्ती को रास्ता देती
तो कभी मल्लाह की गलती से उलटती कश्ती को देख हंसती
बस एक ही मंजिल थी उसकी
अपने समंदर से निरन्तर एकाकार होना
अचानक उसकी चाल में
एक तेज मोड़ आया
वह चढ़ने लगी पहाड़ की ओर
उसे देख दरख्त हंसने लगे
जंगली जानवर चिल्लाने लगे
वह क्या करती
सामने खड़ी थी नियति
वह बस ठहर गयी पहाड़ की एक चोटी पर
समंदर से कह दिया कि आना है मुश्किल
एक शांत झरना इधर उधर से गिरता
जल लाकर रोज छोड़ने लगा
वह मीठे पानी की झील में तब्दील हो गयी |

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रामकिशोर उपाध्याय 

Saturday, 21 June 2014

कैंची और सुईं 
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सच 
अगर काटता आदमी को 
किनारे से या बीचों बीच किसी सोने की कैंची से भी 
उस सच की कैंची की धातु को  
अपनी सांसों की भट्टी में पिघलाकर राख कर देना चाहिए .....
*
झूंठ 
अगर सी देता है फ़ासले दिलों के 
किसी लोहे की सुईं को चुभाकर आदमी के जिस्म में भी 
उस  झूंठ की सुईं को ...
नगीना समझकर अपने सर की टोपी में खोंस लेना चाहिए  ...
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रामकिशोर उपाध्याय

Sunday, 15 June 2014

एक नया लुक
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जिंदगी वही 
जिंदगी की किताब वही
पुराने पन्ने वक्त की मार खाकर
बस फटने से लगते है ...
अगर किताब को न संभाले हम कहीं
ऊपर का आवरण
पुराने पन्ने के ऊपर बस थम जाए वही
पर हर रोज पुरानी जिंदगी जीने का नया सपना हो सही
फिर जिंदगी का कोई नया बुत तामीर मैं क्यों करूँगा
उस पुराने बुत में रोज नए रंग भरूँगा
और उसको अपनी किताब के
पहले पन्ने पर अपने सुहाने अहसासों से चस्पा कर दूंगा ...
और जिंदगी की किताब को मिल जायेगा
नया एक लुक ....
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रामकिशोर उपाध्याय
अकेला शिखर (Lonely Peak)
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उसने स्वप्न था देखा 
दिन के उजाले में 
और एक दिन बड़े वृक्ष के सशक्त तने को 
अपने हाथों के तंतुओं से लिपटकर
बर्फ़ से ढके शिखर पर गिरती प्रातःकालीन रश्मियों की आभा से
सबकी आँखे चुन्धियाने लगा
कितना भ्रमित है वृक्ष अब मेरी नीचे उतरने की राह देखता है
उसको एक समझाया था
कि लता शिखर पर आकर वृक्ष का साथ छोड़ देती है
जैसे किसी सीढ़ी को गिरा दे
छत पर पहुचकर
बर्फीले शिखर पर घास नही उगती
और अब सर्दी का मौसम रहेगा कुछ दिन
कोई पर्वतारोही भी निकट नहीं आएगा
मित्र तो शिखर देखकर आते ही नहीं
और मित्रो से मिलने के लिए
बड़े से बड़े शिखर को नीचे जमीन पर उतरना पड़ता है
उनके दस्तरखान पर बैठना पड़ता है
पर्वत की तलहटी में बड़ा शहर आबाद हो गया
दोस्तों में वहां कोई प्रतिस्पर्धा ही नहीं
सभी खुश है जमीन पर जीकर भी
गगन को घूरता
गगन को चुनौती देता
देखता दूर से साकार होता अपना स्वप्न
वह बस अकेला रह गया शिखर पर
और सोचता
कि क्या शिखर पर पहुचने पर व्यक्ति ऐसा ही हो जाता है ?
निपट अकेला .निष्ठुर अकेला
मगर किसके लिए... ?
मगर किसके लिए ....?
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रामकिशोर उपाध्याय
तुमने ये पूछा था कभी !!!!!
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तुम्हारे आंसुओं का 
वही अर्थ मेरे लिए 
जैसे तपते सूरज का अचानक तापमान गिर जाना 
और फिर हृदय के खुले कपाटों में
घुसकर ग्लेशियर सा संवेदनहीन हो जाना....
काश ! तुम यह समझ पाते ....|
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रामकिशोर उपाध्याय
जब चाँद लुट
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छिटक रही थी
आसमान से चांदनी
हम भी सितारों जड़ी झोली फैलाकर आंगन में
टकटकी लगाकर बैठ गए 
कुछ क्षणों के बाद जब उठे तो
सारा बदन पसीने से तरबतर था
झोली खाली रह गयी
हालात बदलते ही सितारे फुर्र से उड़ गए
और लोग वाह-वाह करके
पूरा चाँद ही लूट ले गए
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रामकिशोर उपाध्याय
कब बरसेगा ?
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अब तो
दिल हुआ जाता है
जेठ का महीना
इस जलती धूप में
न जाने कब से
बह रही है पुरवा हवा विरह की
उड़ गए बदरा सांवरियां
परदेश की गलियों में हो रही है रिमझिम
बंजर धरती का आंचल
अब नागफनी के पौधों को भी तरसता है
अक्षत दूर्वा बनकर
मैं कब तक आसमानी कहर सहती रहूंगी
सुना है इस बरस मानसून का मौसम लम्बा नहीं होगा
परन्तु पूर्वाग्रहों की छतरी
मै बिलकुल नहीं खोलूंगी इस बार
भीगकर अन्दर तक समा लेना चाहती हूँ बरसात
राम जाने अहसासों की
नन्ही नन्ही फुहारें लिए
प्रेम का सावन कब बरसेगा
मेरी नगरिया में ......?
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रामकिशोर उपाध्याय

Thursday, 5 June 2014

के कभी हमें पैबन्द लगी कमीज पहनने से गुरेज था,
अब ख़ुशी की चिंदियों से सिली जिंदगी को सहेजते हैं|
रामकिशोर उपाध्याय
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