Tuesday, 22 October 2013

एकल काव्य पाठ --- एक साहित्य मंच 
"शीर्षक अभिव्यक्ति" (उन्वान ) --- 79 (चित्र) दिए गए चित्र पर एक विनम्र प्रस्तुति
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काल का पक्षी

बहुत बांधा
तुम्हे
बहुत घोटा गला
तुम्हारा
कि तुम न चीख सको
कि तुम न उड़ सको
कई बार मैंने तुम्हारे पर काट डाले
कई बार तुम्हे कालकूट दिया
फिर भी न कट सके
फिर भी न मर सके  
तुम तो जैसे पीयूष पीकर आये थे
समुद्र मंथन के अवसर
और खुद ही बंट गए
घडी में
पल में
संवत में
युग में
मैं मानव हूँ
मैंने बहुतों को जन्म दिया
मेरी जिज्ञासा के समक्ष
प्रकृति भी कई बार नतमस्तक हुयी
जब मैं अकर्मण्य रहा
और समझता रहा
कि मैं तुम्हे काट रहा हूँ
परन्तु वास्तव में तुम ही मुझे काट रहे थे
मैं तुम्हे बांध नहीं सकता
और बाधने इस भ्रम में जी नहीं सकता
तुम ही सत्य हो
और
परिवर्तन चक्र
चलाते रहो
प्रकृति की नित्यता हेतु
हे नियंता !
काल........
उड़ते रहे हो
उड़ते रहों एक पक्षीसम
अनंत में और अंत तक ---------

रामकिशोर उपाध्याय
22.10.2013

2 comments:

  1. काल को तो स्वयं महाकाल भी नहीं बाँध सके तो इन्सान की क्या हैसियत ...
    अर्थपूर्ण लेखन ....

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    1. दिगंबर नासवा जी , आप सत्य कह रहे हैं. प्रशंसा के लिए सादर आभार............

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