Wednesday, 28 December 2011
Thursday, 22 December 2011
आइने की किरचे
शिक्षा
सुबह --
अधिकारी डांट रहा था बाबू को
भ्रष्ट हो तुम
निलंबित कर दूंगा तुम्हे .
शाम --
अधिकारी डांट रहा था ठेकेदार को
क्यों दी रिश्वत बाबू को सीधे ही ?
जानते नहीं
सूचना- पट पर लिखा हैं
"किसी भी कार्य के लिए सीधे अनुभाग में जाना मना हैं.''
त्याग
एक सभा में छुटभैय्या चीखा ...
अरे भाई अपने नेताजी ने
समाज के लिए
उत्थान के निमित्त
नंगे पांव रहने का संकल्प किया है
सुना है की नाही ?
भीड़ से एक नौजवान चिल्लाया ...
अरे भाई !
बीस साल बाद
कोई यह न कहे
कि नेताजी ने तो सदा ही जूती चटकाई है
जानते हो कि नाही.
आइने की किरचे
Tuesday, 20 December 2011
"नव वर्ष की अभिलाषा "
न हो हताश
असीम नभ के अदृश्य छोर तक
पाँखे न पसार पाने पर,
न हो निराश
धरा के सुदूर कोनों तक
डग न भर पाने पर ,
न हो प्यास
मेघ की नवोदित बूंदों के मन -चातक के
मुख न पड़ पाने पर ,
न हो उदास
समुद्र के उत्थित प्रहारों के
तट न बंध पाने पर
सिक्त हो प्रभु !
जीवन अमृत से घट
खुले नित नए
संभावनाओं के पट
हो जीवन-दृष्टि विस्तृत
जो अछूती संवेदनाओं को करे स्पर्श
चखूँ नित आनंद -अमृत
प्रभु ! इस नव वर्ष .
Thursday, 15 December 2011
ख़ुशी
पाने को आदमी, ख़ुशी के पल,
छलता जाता खुद को हर पल .
कभी पिघलता जिस्म की गर्मी से
कभी जमता रिश्तो की बेरुखी से
घुटकर रह जाता कभी अचल .
छलता जाता खुद को हर पल .
कभी आती धुंध को ही सच मानता
कभी जाती गंध को समेटना चाहता
गिरता कभी टूटते तारे सा विकल .
छलता जाता खुद को हर पल .
कभी झरने का पानी बन बहता
कभी जंगल की आग बन जलता
भ्रम में उलझ रह जाता अचल .
छलता जाता खुद को हर पल .
कभी आशा में विचलित हो जाता
कभी निराशा में प्रेम गीत भी गाता
देख शोख अदाएं जाता मचल .
छलता जाता खुद को हर पल .
कभी सिक्कों के लिए दानव बनता
कभी सिक्का बन भट्टी में गलता
माया नगरी में लुटता पल पल.
छलता जाता खुद को हर पल .
एक अमूर्त या मूर्त है ख़ुशी
एक टुकड़ा या पूर्ण है ख़ुशी
उतर भंवर में गर है सबल.
छलता जाता खुद को हर पल .
अर्थ, काम या मोक्ष है ख़ुशी
भीतर छलकी पड़ी है ख़ुशी
ठगेगी वरना ख़ुशी, तू बस चल .
पाने को आदमी, ख़ुशी के पल,
छलता जाता खुद को हर पल .
आशा
प्रिय मित्रों,यह कविता एमिली डिकिन्सन की महान कविता 'होप' को हिंदी में अनुवाद करने का एक प्रयास मात्र है. यदि सही लगे तो दाद देना नहीं तो सुझाव देना. धन्यवाद.
आशा का पंछी
रहता जिसका आत्मा में वास,
बिन बोले भी करता मधुर गान
और उड़ता गगन निर्बाध,
बहे चाहे जितनी तेज आंधियां
या उठे भयंकर बवाल,
कर सकता नहीं निढाल
करता सभी को उर्जा से निहाल
आती है मेरे कानो में आवाज़
आती है मेरे कानो में आवाज़
बर्फीले मैदानों में या फिर हो समुद्र निराला ,
निष्ठुर विवशताओं में भी
नहीं मांगता मेरा एक निवाला .
Wednesday, 14 December 2011
नहीं मांगता फूलों की क्यारी
नहीं मांगता फूलों की क्यारी
नहीं बांटता बगिया तुम्हारी
हो सोने के कंगन प्यारे-प्यारे
गले में हो बाँहों का हार तुम्हारे
पावों में हो पायल व घुंघरू
घायल दिल को कहाँ धरुं
ह्रदय पर चलती छुरी तुम्हारी
होले से बजती सीटी हमारी
अब आ जाओ निकट हमारे
बरसों से पड़े
मेरे अधूरे अरमान पर तरस खा भी जाओ .
नहीं मांगता स्वर्ग तुम्हारा
चमकता रहे मुखड़ा प्यारा
चाहता हूँ कि बहे दरिया-ए-जाम
हो रोशन तेरे साथ मेरी हर शाम
जब कभी बले दिया मद्धम
हो चले सांसें मेरी गजब
न हो कोई दूरियां
और न कोई मजबूरियां
मदहोशी में लब रहे खामोशी में
सदियों से पड़ी
मेरी बंजर जमीन पर बरस भी जाओ .
Wednesday, 7 December 2011
हाईकू
(1)है बदलाव
सर्दी की ठिठुरन
बर्फ अलाव .
(2) नया जुगाड़
घोडा चलता पीछे
टमटम के .
(३) होती बरखा
पतझड़ के बाद
नया मौसम .
(4) आज की सत्ता
नेता बनता स्वार्थी
प्रजा बाराती .
(५) शासन मौन
जनता पलायन
है सुशासन .
(६) लोकसेवक
मिथ्या ही पहचान
माया गबन.
बर्फ अलाव .
(2) नया जुगाड़
घोडा चलता पीछे
टमटम के .
(३) होती बरखा
पतझड़ के बाद
नया मौसम .
(4) आज की सत्ता
नेता बनता स्वार्थी
प्रजा बाराती .
(५) शासन मौन
जनता पलायन
है सुशासन .
(६) लोकसेवक
मिथ्या ही पहचान
माया गबन.
हाईकू
Friday, 2 December 2011
बींट किये हुए चंद आदमकद बुत
स्वयं
को कर विदीर्ण
दिन-प्रतिदिन
रात दर रात
सिद्धांतो के पोषण में कर दिया देह को भी
समर्पित एक दिन
शाश्वत अग्नि को-
कि रहे अनश्वर
अनादि सनातन सत्य ---
लोग
बड़े विचित्र
अनुसरण के विपरीत
महानता का चोला ओढ़ा दिया
जीते जी पाया सिर्फ
चंद हार, अपवित्र हाथों से
और मरने पर पाया
असहाय मरीज की तरह
अस्पताल के बोर्डों पर नाम
व बींट किये हुए
धूप में यहाँ वहां चौराहे पर
बिना छतरी के खड़े
चंद आदमकद बुत
(बींट किये हुए चंद आदमकद बुत)
रामकिशोर उपाध्याय
२.१२.२०११
Thursday, 1 December 2011
मन चातक की पीर
उमड़-घुमड़ कर छायी बदली,
काली-काली ,पर रीती नीर .
तरड- तरड कर चटकी धरती,
कौन सुनेगा मन चातक की पीर.
कौन सुनेगा मन चातक की पीर
पिया मिलन को चली हंसिनी
उभरा यौवन ,नयन अधीर
पता पूछती फिर भी भटकी
कहाँ मिलेगा प्यासी को नीर .
कौन सुनेगा मन चातक की पीर.
लगी लगन जब एक ही और
कौन है राँझा, कौन है हीर
गान में लिपटी प्रेम की पीड़ा
कौन कहेगा थी वो एक मीर
कौन सुनेगा मन चातक की पीर.
लहरों का शोर
बीच पर बैठे कुछ लोग
ढूंढ़ रहे थे कुछ मन की शांति
तन की शांति
लहरों के शोर से बेखबर, अनजान
चल रहा था द्वंद, जो कह रही थी
सावधान !तट
हम आ रही है , आती रहेंगी
जब तक तुम्हे लील न जाये
हंस पड़ा तट - बिना कमजोर हुए
ओ लहरों ! क्या तुम मुझे यही प्रतिफल दोगी
मुझसे ही क्रीडा करने का
मत भूलो , बंधा है मैंने समुद्र को अपने बंधन में
दिया है आकार- प्रकार
वर्ना जमीं पर ओ लहरों
लील जाता तुम्हे सूर्य
सोख लेती तुम्हे धरा
गंभीर हो, लहरें कुछ थम सी गयी
तट भी उनका आशय समझ गया
और दे बैठा उन्हें पुनः निमंत्रण क्रीडा का
निशा बढ़ने लगी
चांदनी ने पूरे समुद्र पर चादर फैला दी
लोग उठकर जाने लगे
जाने बिना
तट का लहरों से प्रेम को
समुद्र का मर्यादा के प्रति सम्मान को
और
लहरों का शोर में छिपे निरंतरता के उद्घोष को -----