चित्र गूगल से साभार )
राह चलते- चलते
अनेक पत्थर मिलते हैं
कहीं धूप में तपते
तो कहीं चांदनी को तरसते
कहीं मूर्तिकार की महीन छेनी से कटते
और वांछित आकार न मिलने पर आंसू बहाते
कहीं नदी में तैरते और रगड़ खाकर भी
शालिग्राम न बन पाने पर विधना को कोसते
पत्थर ......
कहीं बर्फ़ के तले जमते
और धूप को ढूंढते
कहीं सड़क में बिछते
और राजमार्ग न कहलाने पर विक्षुब्ध होते
कहीं किसी भवन की नींव में खपते
और हवा को तड़पते
कहीं ज्वालामुखी बन फटते
और ग्लेशियर को समेटने की पीड़ा पाते
और बहती नदी को रोकने के लिए होते अभिशप्त
तो खुली सड़कों पर ठोकर खाते
पत्थर ,,,,
पत्थर का मानव से ,,,,
शाश्वत सम्बन्ध है
वही संबंधों को समेटने की पीड़ा ,
वही उपादेयता का प्रश्न
और वही परिचय का संकट
कभी एक गुमनाम हवेली की नींव में लगा
तो कहीं एक मंदिर में गड़ा
पत्थर सा इन्सान,,,
जिसकी जीवंत अभिलाषाएं
मूक होकर नभ को ताकती रहती हैं
अनंत तक ...
मूर्त होने का क्षण
*
रामकिशोर उपाध्याय