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नहीं होता
इतना सहज
किसी को अपना कह देना
यह यात्रा
कभी -कभी एक क्षण में पूरी हो जाती हैं
कभी -कभी
प्रतीक्षा युगों युगों तक करनी पड़ती हैं
बरगद की जटाएँ
जब धरती में समाकर तन जाती है
और तने पर परत दर परत
चढ़ती चली जाती है किसी पीड़ा के स्राव की
और किसी अतृप्त कामना के छोटे-छोटे सींग
बरस दर बरस लम्बे होकर उसके शरीर पर जब भार हो जाते है
तब भी अस्थि पिंजर में
कैद इस नश्वर देह को
करना ही होता है अनुपालन मन का
और मन
सूरज की गर्मी से नही
चाँद की नरमी से भी नही
चलता है तो
लहरों पर सवार होकर
आँखों के शासन से
और करेगा मन उनकी
प्रतीक्षा .
अपना कह देने तक .......
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रामकिशोर उपाध्याय