Tuesday, 14 July 2015

अपना कह देने तक .....


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नहीं होता
इतना सहज
किसी को अपना कह देना
यह यात्रा
कभी -कभी एक क्षण में पूरी हो जाती हैं
कभी -कभी
प्रतीक्षा युगों युगों तक करनी पड़ती हैं
बरगद की जटाएँ
जब धरती में समाकर तन जाती है
और तने पर परत दर परत
चढ़ती चली जाती है किसी पीड़ा के स्राव की
और किसी अतृप्त कामना के छोटे-छोटे सींग
बरस दर बरस लम्बे होकर उसके शरीर पर जब भार हो जाते है
तब भी  अस्थि पिंजर में
कैद इस नश्वर देह को
करना ही होता है अनुपालन मन का
और मन
सूरज की गर्मी से नही
चाँद की नरमी से भी नही
चलता है तो
लहरों पर सवार होकर
आँखों के शासन से
और करेगा मन उनकी
प्रतीक्षा .
अपना कह देने तक .......
*
रामकिशोर उपाध्याय

Friday, 10 July 2015

एक गीतिका/ग़ज़ल *















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दे गई दर्द जब हर दवा क्या कहें
हो गया वक्त ही बेवफ़ा क्या कहें
*
इश्क में चाक दामन उसी ने किया
पर मिली बस हमीं को सजा क्या कहें
*
साँस सरगम बनी जब बजी प्रेमधुन
क्या किसी ने कहा या सुना क्या कहें
*
प्यार की हर तमन्ना हुई थी जवां
आ रही है अभी तक सदा क्या कहें
*
प्यास जब कुछ बढ़ी दूर थी वो नदी
बीच मझधार जा खुद फँसा क्या कहें
*
रामकिशोर उपाध्याय
10 जुलाई 2015

Thursday, 9 July 2015

आओ जग से प्रीत निभाये ....



गीत
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नफरत में डूबा जग सारा
दहशत की बहती है धारा
बिछड़ों को फिर मीत बनायें,
आओ जग से प्रीत निभाये |1
*
पथ में कांटे लोग बिछाते,
बिन कारण के खूब सताते ,
अब इनकी ये रीत मिटायेे ,
आओ जग से प्रीत निभाये | 2
*
मैं हिन्दू हूँ तू है मुल्ला ,
इक ही रब तो क्यों है हल्ला
मिलकर अब यह भीत गिराये
आओ जग से प्रीत निभाये | |3
*
जग को देख उठे जब शंका,
घर-भेदी ढाये जब लंका,
रामराज्य सा द्वीप बनाये |
आओ जग से प्रीत निभाये |4
*
प्रेमभाव से अनुप्राणित कर,
जातपात का भेद मिटाकर,
मिलजुलकर हम दीप जलाये ,
आओ जग से प्रीत निभाये |5
*
रामकिशोर उपाध्याय

क्योंकि मैं धरती हूँ .....













चट्टान 
तो कठोर ऊन्नत होगी ही 
वारिद 
तो धूम्र व्यापक जलयुक्त होगा ही
गगन
तो नीलवर्णी अनंत आच्छादित होगा ही
वायु
तो अल्पभार और गतिमान होगी ही
सागर
तो बृहद तरल होगा ही
सबके अहम को सुनकर धरा बोल पड़ी
विशाल चट्टान
विस्तृत सागर
धूम्रवर्णी मेघ
चंचल पवन
सभी को अपने वक्षस्थल पर धारण करती हूँ
समय पर क्षितिज पर गगन संग रमण करती हूँ
जब मनुज हल से भेदता हूँ मुझे
मैं बस मुस्करा देती हूँ
और प्रकृति से जनन का भार लेकर जिया करती हूँ
फिर भी शांत सहज सरल रहा करती हूँ
क्योंकि मैं धरती हूँ ............
*
रामकिशोर उपाध्याय

Thursday, 2 July 2015

एक ग़ज़ल

ग़ज़ल 
***
ठहरी डगर को फिर घुमाकर देखना
उजड़े शहर को फिर बसाकर देखना
*
गर चाहता है जिंदगी में तू अमन
कुछ भूल जा,कुछ को भुलाकर देखना
*
सागर किनारे प्यास बुझती है कहीं
कुछ बादलों को घर बुलाकर देखना
*
देगा दुआ तुझको,,मिलेगी बस ख़ुशी
भूखे बशर को कुछ खिलाकर देखना
*
मैं भूल सकता हूँ तुझे मुमकिन नहीं
तुम इस फ़साने को भुलाकर देखना
*
गर चाहता है रब मिले तुझको कभी,
दिल से अना,नफरत मिटाकर देखना
*
दुनिया चली है प्यार से ही आजतक
इक प्यार की शम्मा जलाकर देखना
*
रामकिशोर उपाध्याय 

एक छोटी सी कविता




मेरे सपने
अपनेपन को तरसे
कुछ तेरे मन में सूखे
कुछ मेरी आँखों से बरसे
साँझ ढले ही सो गए सारे
सुबह उठे
तो जा नभ में गरजे
मेरे सपने
अपनेपन को तरसे .....
-
रामकिशोर उपाध्याय

ग़ज़ल

ग़ज़ल
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बंदगी के सिवा ना हमें कुछ गंवारा हुआ
आदमी ही सदा आदमी का सहारा हुआ
*
बिक रहे है सभी क्या इमां क्या मुहब्बत यहाँ
किसे अपना कहे,रब तलक ना हमारा हुआ
*
अब हवा में नमी भी दिखाने लगी है असर
क्या किसी आँख के भीगने का इशारा हुआ
*
आ गए बेखुदी में कहाँ हम नही जानते
रह गई प्यास आधी नदी नीर खारा हुआ
*
शाख सारी हरी हो गई ,फूल खिलने लगे
यूँ लगा प्यार उनको किसी से दुबारा हुआ
*
रामकिशोर उपाध्याय

सुनो लम्बरदार .



=
सत्ता गढ़ रही है तर्क
हो रही है कांव-कांव
यह चौपड़ है नई
मगर पुराने मोहरों पर लगे है दांव
यहीं पर शकुनी भी था कभी
जिसने लेने नही दिए दस गाँव
वह जमाना और था ..
सत्ता के लिए सिर्फ घर में ही शोर था
और प्रजा थी खामोश
राजा रहता था मदहोश
बदली है फ़िज़ाये आज
प्रजा करती है अगर कुछ सवाल
तो गिरने लगते है ताज
हवा भी बहती है
तो जानते है लोग किधर जायेगी
आंधी अगर चल पड़ी
जनता बिफर जायेगी
पुरवाई में उठा है
कुछ बवाल
आ रही है तबेले से आवाज
हो हलाल ,हो हलाल
क्या अब भी रहेगा कोई तटस्थ ..
क्या हो रही है प्रतीक्षा
किसी मुहूर्त की
आज भीष्म ही तो प्रजा है
अयन का उसे नहीं है इंतजार
बार हो रहा है शंखनाद
मगर सुनते कहाँ है लम्बरदार
प्रजा का चैन है तिरोहित
सुनो लम्बरदार ....
*
रामकिशोर उपाध्याय