Sunday, 29 September 2013

माथा गरम रखो और कुर्सी पकड़ के :::::::::::::::सफल अधिकारी के गुण :

यह एक मनोरंजक किस्सा हैं और अपने में पूरी सार्थकता लिए हुए। यह एक मजे दार किस्सा एक प्रोफेसर साहेब ने सुनाया। एक बार एक अँगरेज़ गवर्नर का एक खानसामा था और वह भी उनका मुंहलगा। उस खानसामें के बेटे ने हाई स्कूल पास किया तो पिता को चिंता सताने लगी नौकरी की। अँगरेज़ गवर्नर का खानसामा था इसलिए बहुत ज्यादा चिंता नहीं थी। उसने एक दिन गवर्नर साहेब के लिए जी जान लगाकर उनकी पसंद का मुर्गा पकाया और खाने की मेज पर सजा दिया। खाने के बाद गवर्नर साहेब से पुछा कि आज मुर्गा कैसा बना। अँगरेज़ खुश था और इसी बीच अपनी टूटीफूटी अग्रेज़ी में अपनी चिंता उसके सामने प्रकट कर दी। गवर्नर ने तुरंत अपने ADC को बुलाकर उसके बेटे को अच्छी सी नौकरी देने का आदेश दे दिया। वह ज़माना आज जैसा नहीं था कि अपने किसी मातहत   के रिश्तेदार को नौकरी न दे सके। अब तो चपरासी के लिए रेलवे में तो महाप्रबंधक की स्वीकृति चाहिए। ADC ने उसे तहसीलदार बना दिया। लेकिन एक महीने के बाद लड़का घबरा गया और अपने खानसामा पिता से कोई और नौकरी देने की इच्छा जाहिर की। पिता ने ADC को बेटे की दिक्कतें गिनाते हुए कोई और नौकरी की प्रार्थना की।

ADC ने उस लड़के को डांटा और कहा कि तुम कैसे आदमी हो कि अच्छी नौकरी करना भी नहीं जानते। इतनी जल्दी घबरा गए। तुम यही नौकरी करोगे, तुम्हे कुछ समझा रहा हूँ। देखो जब तुम्हारे सामने कोई मातहत आये उससे सीधे मुंह बात मत करों , उसे बिन बात भी डांट दो।अर्थात माथा हर वक़्त गरम रखों।वह तुमसे डरेगा और वफादार रहेगा। और कुर्सी पकड़ के रखों। लड़का बोल उठा वो कैसे ? अरे मुर्ख कुछ ऐसा काम करो कि तुम्हारा बॉस तुम्हे पसंद करे और न हटाये। समझे कुछ ? जी समझ गया और वापस तहसीलदार की नौकरी करने लगा और बाद में कलेक्टर भी बना।

तो दोस्तों '' माथा गरम रखो और कुर्सी पकड़ के रखो ''''......................

जो अधिकारी मित्र इसका पालन न करते हो एवं उनके पास और कोई जीवन मंत्र हो सफल होने के , वे इस नुस्खे के अनुपालन न करने के लिए स्वतंत्र हैं।

रामकिशोर उपाध्याय 
बंद पेटी में पीडा-----------------------


पीडाके
पिंजरे में मन का कैदी,
बार -बार उड़ान भरता
और पंख कटाकर पुनः लौट आता ,

पिंजरे की तीलियाँ 
फौलाद की नहीं 
लकड़ी की अशक्त
परन्तु मन पर सशक्त 

मन कैद
स्वतंत्रता के बाद 
जैसे वोट देने के बाद 
मतदाता
बंद मतपेटी में ..........

रामकिशोर उपाध्याय

Thursday, 26 September 2013

गुनाहगार 
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हैं हाज़िर गुनाहों के साथ उसकी अदालत में,
और बेगुनाही की हर एक दलील टाल देता हैं।

कातिल भी वही हैं,मौका-ए-गवाह भी हैं वही,
फिर भी कोई नाइंसाफी की बात टाल देता हैं।

ये कैसी सजा देता हैं उसको वो नादाँ मुंसिफ,
कि फांसी मुक़र्रर कर के फैसला टाल देता हैं।

रामकिशोर उपाध्याय



ऐ खुदा !

इस मुश्किल दौर में जीने की मेरे पास बस दो वजह हैं,
एक तेरी मुस्कराहट,,दूसरी तुझे पाने की मेरी जुस्तजू।
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उन्वान -' शरारत' मैं ,,,,,,हूँ,,,,,,,ना

एक हलकी शरारत से वो कह गए गहरी बात,
बरसों तक उसे हम ढूंढते रहे पाक किताबों में। 
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के लहर विवश हैं और बहुत दूर हैं किनारा,
ले चल किश्ती तू,जब साजन ने हैं पुकारा। 
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जबसे खुदा मान के उनकी इबादत शुरू की,
बहिश्त का खुदा लड़ने जमीन पे आ गया।

रामकिशोर उपाध्याय


Wednesday, 25 September 2013

श्री कृष्ण
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जगत
आपको जानता हैं
दो माताओं से
एक देवकी --
एक यशोदा ---

देवकी - अर्थात देव की जननी
इस माँ की कोख में आके
हे हरि !
आप देवकी को धन्य कर गए

यशोदा - यश की दात्री
इस माँ के आँचल में पलकर
ईश्वर के सरीखे
कार्यो का यशोगान आपने
विशिष्ट जन में नहीं
जन -जन से करा दिया
हे हरि !

आप तो हैं विशेष -
राज करे तो राजनीतिज्ञ
कल्याण करे तो देव
छल करे तो कूटनीतिज्ञ
युद्धय में योद्ध्या
अर्जुन के सारथी
अध्यात्म में गीता
सुदामा के मीता
द्रौपदी/कृष्णा के भाई
दुर्योधन से लड़ाई
अनंत है गाथा
अंत में शरीर
के पैर में तीर
एक सामान्य जन सा जीवन
कभी भोग/विलास की अनुकूलता
कभी संघर्ष सी प्रतिकूलता
कृष्ण कभी हारता नहीं
कृष्ण कभी जीतता नहीं
जीतता हैं-
मित्र सुदामा
योद्धा अर्जुन
बहन द्रौपदी
राधा का प्रेम
हारता है -
दुर्योधन का दंभ
शकुनि की चाल
धृतराष्ट्र का संतान -प्रेम

पर मेरा कृष्ण --
मुझे लगता हैं
अभी मेरे कंधे पे हाथ रखेंगे
और कहेंगे मित्र, द्वापर नहीं हैं
परन्तु मैं अभी भी यही हूँ
आपके साथ
आपका कृष्ण
मेरे हाथ
में हैं तुमारा हाथ
बस तू जीवन-युद्ध कर
छोड़ दे शेष मुझपर,,,,,,,,,,,,,,,,

Ramkishore Upadhyay
25.09.2013

Sunday, 22 September 2013


बस मैं आज खड़ा हूँ !
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मैं आज
एक चौराहे पर खड़ा हूँ
जहाँ  रस्ते तो कई
चार से भी अधिक
पर मंजिल की दिशा कोई नहीं

मैं आज
एक रस्ते पे  खड़ा हूँ
जहाँ मकान तो कई
अधिक से भी अधिक
पर किसी घर पर मेरा पता लिखा नहीं

मैं आज
एक घर में गड़ा हूँ
जहाँ रिश्ते तो कई
पिता,पुत्र,पति,भाई  से अधिक
पर सन्नाटे से अधिक कुछ नहीं

मैं आज
फिर सांसों में  अटका हूँ
जहाँ तेज़ धोकनी सी चलती
साँस मेरी , नब्ज़ मेरी
पर जीवंत स्पंदन बिलकुल नहीं

बस मैं आज खड़ा हूँ

रामकिशोर उपाध्याय
मैं कैसे कहूँ ?
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वक्ष-स्थल जल रहा हैं 
कही कुछ उबल रहा हैं
जबतलक मेरी ह्रदय -वेदना पाताल में न पसर जाये,
तब ही मैं यह कहूँ कि मुस्कान अधरों पर ठहर जाये।1।

आँखों में  सपने,
जो हैं मेरे अपने 
सपने कल्पना छूकर धरती पर लकीरों में उभर आये, 
तब ही मैं यह कहूँ कि मुस्कान अधरों पर ठहर जाये।2।

मृदंग बज रहे हो,
सुर नाच रहे हो,
मन के भाव अक्षरों को छूकर सितारों से निखर जाये,
तब ही मैं यह कहूँ कि मुस्कान अधरों पर ठहर जाये।3।

एक हाथ पे अपने चाँद रख लूँ ,
दुसरे पे चाँद सा चेहरा रख लूँ ,
विरह की धूप घने पेड़ों से छूकर यहाँ वहां छितर जाये,
तब ही मैं यह कहूँ कि मुस्कान अधरों पर ठहर जाये।4।

हो आँखों में करुणा का पानी,
बनती  तभी सशक्त कहानी ,
आशंकाओं के बादल संकल्प के आंगन में सिंहर जाये,
तब ही मैं यह कहूँ कि मुस्कान अधरों पर ठहर जाये।5।

किरणों का रथ हो,
सुगम जीवन पथ हो,
घोर तम  उषा छूकर सदैव शुक्ल -पक्ष में ठहर जाये,
तब ही मैं यह कहूँ कि मुस्कान अधरों पर ठहर जाये।6। 
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रामकिशोर उपाध्याय 
22-9-2013

Friday, 20 September 2013

प्रिय मित्रों, सुप्रभात।

एक विनम्र निवेदन : 

कृपया समय निकाल कर ''नेशनल परिवर्तन'' के सद्य प्रकाशित अंक में छपी लघु कथा ' वह कौन थी ' (Page 31 ) अवश्य पढ़े।

रामकिशोर उपाध्याय 
http://nationalparivartan.com/E-Paper.aspx?id=7#features/33


के लहरों को हम देखते रह गए ,
बैठे थे जैसे बस बैठे ही रह गए।

बाते करते वे गीता कुरआन की,
पर चश्म इश्क दिखाते रह गए।

रामकिशोर उपाध्याय
ऐसे कैसे चले जाते !
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इस भरी दुनिया से हम ऐसे कैसे चले जाते,
के तुम्हे दुल्हन बनाये बिना कैसे चले जाते।

जिन्दगी की मोसिकी में कई रंग और राग ,
के कोई नगमा सुनाये बिना कैसे चले जाते।

शाम डूबती रही बस तनहाई के आलम में ,
के इसका सोग मनाये बिना कैसे चले जाते।

तुम आये और चले भी गए बड़ी बेरुखी से,
के हम तुमको मनाये बिना कैसे चले जाते।

जब रूह हो रही है फ़ना लगा इश्क का रोग,
के फिर इलाज कराये बिना कैसे चले जाते।

रामकिशोर उपाध्याय
अनुत्तरित प्रश्न 
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काल के गाल में समा गये प्रश्न 
जिन्हें हम कहते थे अनुत्तरित,
उत्तर जिनके हमको प्राप्त हुए 
मानों एक स्वर्ग हुआ अवतरित ।1। 

खेद नहीं के लक्ष्य भेदने रह गये 
जो थे सधे हुए वे जा लगे सटीक,
चंपा किसी वेणी में हैं रहा इठला
एक केक्टस से हैं मरू रमणीक ।2।

अक्षम ही भोग रहे हैं राजसत्ता
मिला हमको भी छोटा राजयोग
सब जानते कि कौन यहाँ रहता
चाहो तो आनन्द देगा बस 'योग' ।3।

(c) रामकिशोर उपाध्याय
13.9.2014
आग से बच जाना तू !
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के दहकते अगारें भी ना जला सकेंगे तेरे पांव,
बस तू लोगों की नज़र की आग से बच जाना।

इन बुजदिलों लोगों का यकीन ना करना कभी,
महफ़िल में तू घर को अच्छे से बंदकर आना। 

हिफाज़त करना अपनी बीवी बहन बेटियों की,
के इमानवालों के झांसे में तू कतई ना आना।

हो रही हैं लम्बी तकरीरे,खून बहाते हैं ये लोग,
के भूलके तू मंदिर मस्जिद की ओर ना जाना।

करना तू भरोसा खुद पर,,ना छोड़ना हिम्मत,
हैं खुदा साथ तेरे तू इस बात को मत भुलाना।

रामकिशोर उपाध्याय
13-09-2013
मित्रों,आज हिंदी दिवस हैं।आज और सदैव अधिक से अधिक हिंदी का प्रयोग अपने कामकाज में करे। यह मात्र रस्म अदायगी तक ही सीमित न रह जाये। मेरी इस अवसर पर एक विनम्र प्रस्तुति।

हिंदी की बिंदी 
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हिंदी की बिंदी चमकी रही विश्व के शुभ्र भाल पर,
अ से ह तक के स्वर व व्यंजन नाचे सुर ताल पर,
करे गीत दोहा छन्द और सोरठा से सोलह श्रृंगार,
यह दायित्व है सबका,,,राष्ट्रभाषा के सवाल पर। 

रामकिशोर उपाध्याय
Just to remember my dearest BHUSHAN, who suddenly left us for heavenly abode on 16.9.2013. 

शब्द अक्षर में टूट गया,
जब तू हमसे रूठ गया।

Ramkishore Upadhyay

चंद अशआर 
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आजकल मैं अपने हाथों में लकीरों को देखकर घबरा जाता हूँ, 
के जब इन्हें देखो ये मेरा मुकद्दर बदलने में मसरूफ रहती हैं।
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बस यूँ ही करती रही इंतज़ार हर शाम को तुम्हारा,
के फूल भी मुरझाते रहे मेरे साथ सुबह होने तक। .
-------------------------------------------------- कितना आसान हैं हाथ अपने के कांधे पे रख देना,
उतना ही मुश्किल हैं अपने किसी को कन्धा देना। 

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---------------------------------------------------------- आज उनके कहने पर अपने गुनाहों की किताब जला डाली,
के कहीं हर सफ़े पर उन्हें पाने की चाहत शाया न हो जाये।

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ये आइने क्यूँ लगा लिए घर में,
जब देखो रोककर मुझे घूरते हैं।
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बेशक तुम पत्थर बन जाना और मत देना ख़तों के जवाब,
पर क्या तुम अपने जिस्म से मेरी गंध को मिटा सकते हो।
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के बुल्लेशाह का दिल ढूंढता था तख्त हजारे,
यहाँ सब के सब हैं दिल्ली के तख़्त के मारे। 

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आते दुःख जीवन में वेगवती नदिया से,,
और जाते हैं चलते हुए गर्भवती गैया से। -------------------------------------------

मैं तो धूप में नहाया हूँ एक शजर,
तू थक गया तो छाँव में कर बसर।

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बड़ी तमन्ना थी कि सलवटें गिने बिस्तर की एक सुबह,
उफ़ ये अफसाना कागज़ की सलवटों में छुपके रह गया । 

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ये मंजूर हैं !
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फासलें भी मंजूर हैं हमको ,
बशर्ते कोई दरमियाँ न हों।

गुनाह भी कबूल हैं हमको ,
बशर्ते कोई तल्खियां न हो।

कफ़स भी मंजूर हैं हमको,
बशर्ते कोई अरजियां न हो। 
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रामकिशोर उपाध्याय
१४-०९-२०१३


परदा 
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परदा उठता हैं 
परदा गिरता हैं 
इन दोनों के बीच लोक चलता हैं 
लोग चलते हैं 

चलते -चलते .......
लोग बेपरदा होते हैं 
गुनाह जब बापरदा होते हैं

बस इसी बीच
कुछ परदे पुराने हो जाते हैं
कुछ फट जाते हैं
कुछ बदल दिए जाते हैं
कुछ परदे छोटे होते हैं
कुछ रंगमंच जैसे बड़े होते हैं
कुछ रंगीन परदे होते हैं
कुछ महीन परदे होते हैं

यहाँ सब कुछ होता हैं
बस एक परदे में होता हैं
प्रेम
भोग,आनंद
हिंसा ,अपराध
भोजन , भजन
यहाँ हर किसी कार्य को परदा चाहिए
बेपरदा कोई नहीं हैं यहाँ
मनुष्य तो क्या ......
प्रकृति भी नहीं .......

रामकिशोर उपाध्याय
जय लोकतंत्र !
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आजकल 
बाज़ार में एक 
नए धंधे का जोर हैं 
जिसे अंधे भी लगा रहा टेर हैं 
हर गली कुक्कड़ पे शोर हैं 
क्या रेहड़ी 
क्या पटरी 
क्या दुकान
क्या शोरुम
के अमुक चोर हैं
आओ ले जाओ
बेचों और मालामाल हो जाओ
मेरे यहाँ का असली माल हैं
हर किसी व्यापारी का
बस भ्रष्टाचार बेचने पे जोर हैं
जय लोकतंत्र !!!!!!!!

रामकिशोर उपाध्याय

Saturday, 14 September 2013

आयु
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किसी ने पूछा
मैडम क्या ऐज हैं आपकी ?
क्यों ? विवाह करोगे !
निरुत्तर हो गया प्रश्नकर्ता
और
प्रश्न निस्तेज

क्या मैं कम आयु की दिखती हैं
मेरे चार बच्चे हैं
दो पोते और पोतियां हैं
अब तक इक्कीस पुस्तके लिख चुकी हूँ
ग्यारह पर काम कर रही हैं
देखो मेरा टाइम बर्बाद मत करो
अभी बहुत दूर जाना हैं
सृजन के पथ पर
फिर खाना भी बना के खिलाना हैं
मैं थकती नहीं हूँ
मैं बहती नदी हूँ

किसी से उसकी ऐज मत पूछो
उसका सृजन जान लो
इस नश्वर देह की आयु हैं
उसके भीतर उर्जा की नहीं
जीवन के उस पार भी उसका
समाज के प्रति अवदान अक्षुण्य रहेगा
मैं अंतिम समय तक सृजन करुँगी
संतान का नहीं
मानसिक पुत्र और पुत्रियों का

हाँ,पूछो मैंने क्या लिखा
मैंने क्या सिखाया
क्या लौटाया इस समाज को
आयु का प्रश्न सिर्फ साइको लोग करते हैं
क्या तुम साइको हो?
उत्तर था नहीं
लो पढो मेरी यह पुस्तक
'आयु शरीर की नहीं मन की स्थिति हैं '
पढने के बाद  फोन करना,
फिर बताना
तुम कितने प्रौढ़  हुए-------------------------
और मैं कितनी युवा हूँ ……………………………

रामकिशोर उपाध्याय
14-9-2013 

Friday, 13 September 2013

आग से बच जाना तू !
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के दहकते अगारें भी ना जला सकेंगे तेरे पांव,
बस तू लोगों की नज़र की आग से बच जाना।

इन बुजदिलों लोगों का यकीन ना करना कभी,
महफ़िल में तू घर को अच्छे से बंदकर आना।

हिफाज़त करना अपनी बीवी बहन बेटियों की,
के इमानवालों के झांसे में तू कतई ना आना।

हो रही हैं लम्बी तकरीरे,खून बहाते हैं ये लोग,
के भूलके तू मंदिर मस्जिद की ओर ना जाना।

करना तू भरोसा खुद पर,,ना छोड़ना हिम्मत,
हैं खुदा साथ तेरे तू इस बात को मत भुलाना।

रामकिशोर उपाध्याय
13-09-2013

Thursday, 12 September 2013


अनुत्तरित प्रश्न
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काल के गाल में समा गये प्रश्न 
जिन्हें हम कहते थे अनुत्तरित,
उत्तर जिनके हमको प्राप्त हुए
मानों एक स्वर्ग हुआ अवतरित     ।1।

खेद नहीं के लक्ष्य भेदने रह गये
जो थे सधे हुए वे जा लगे सटीक,
चंपा किसी वेणी में हैं रहा इठला 
एक केक्टस से हैं मरू  रमणीक    ।2। 

अक्षम ही भोग रहे हैं राजसत्ता
मिला हमको भी छोटा राजयोग
सब जानते कि कौन यहाँ रहता
चाहो तो आनन्द देगा बस 'योग'  ।3। 

(c) रामकिशोर उपाध्याय
13.9.2014


ऐसे कैसे चले जाते !
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इस भरी दुनिया से हम ऐसे कैसे चले जाते,
के तुम्हे दुल्हन बनाये बिना कैसे चले जाते।

जिन्दगी की मोसिकी में हैं कई रंग और राग ,
के कोई नगमा सुनाये बिना कैसे चले जाते।

शाम डूबती रही बस तनहाई के आलम में ,
के इसका सोग मनाये बिना कैसे चले जाते।

तुम आये और चले भी गए बड़ी बेरुखी से,
के हम तुमको मनाये बिना कैसे चले जाते।

जब रूह हो रही है फ़ना, लगा इश्क का रोग,
के फिर इलाज कराये बिना कैसे चले जाते।

रामकिशोर उपाध्याय

मुक्त ---

जीतने की जिद में हम बाजी हार गए, 
और तुम फ़िक्र में ये दिल ही हार गए। 

सरहाने रख लिए तुम्हारे ख़त सारे,
शायद सुर्ख आँखों में नींद आ जाये।

के लहरों को हम देखते रह गए ,
बैठे थे जैसे बस बैठे ही रह गए।

बाते करते वे गीता कुरआन की,
के हम तो नूर देखते ही रह गए।




बड़ी तमन्ना थी कि सलवटें गिने बिस्तर की एक सुबह, 
उफ़ ये अफसाना कागज़ की सलवटों में छुपके रह गया । 

Wednesday, 11 September 2013

तसव्वुर मेरा
--------------

हो सकता है,,,करे फरेब जीस्त की यह अदा,
न की दगा हमने ,हम तो यूँ ही जिए हैं सदा।

बहके जरुर हैं कभी कभी बादलों के मानिंद,
ये तो हुक्म था हवा का,वर्ना नहीं चढ़ा नशा।

कोई हुस्न में मगरूर कोई अपनी ताकत में,
सब छूटा यही,मिला जो मुकद्दर में था बदा।

देखते हैं सब सपने और करते अमल अपने,
कोई बुत बना तो कोई राह में रह गया पड़ा।  

टूटे हुए आशियाने तो फिर भी बन जायेगे,
वो क्या जुड़ेंगे जिन्हें जुबान हैं किया जुदा।

करता हूँ हर वक़्त तसव्वुर नई तस्वीर का,
के आसमां से मिलने तो आयेगा मेरा खुदा।
 
रामकिशोर उपाध्याय
११-९-२०१३ 

Tuesday, 10 September 2013

मुज़फ्फरनगर में हाल में हुए हिन्दू मुस्लिम दंगों ने मुझे बहुत आहत किया हैं. क्यूँ हम एक दुसरे को मरने पे तुले हैं. क्या प्राप्त कर रहे हैं इस हिंसा से. हाँ, मिले हैं बस कुछ बिलखते बच्चे,विधवा माँ और बहने और माता -पिता के साये से महरूम युवा और युवतियां। किसी बेटी की शादी का सामान जल गया,किसी के सपने टूट गए और कई खुद ही टूट गए. पीछे छोड़ गए एक शून्य जो कभी नहीं भरने वाला हैं. क्या हमारी अंतरात्मा हमें कुछ सोचने के लिए विवश नहीं करती हैं ? मेरी यह पीड़ा कुछ यूँ झलकी हैं.


तेरा मेरा घर जला हैं
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तेरा घर जला या मेरा घर जला हैं ,
ये महज हादसा नहीं, ज़लज़ला हैं।

रोता हैं राम और बिलखता रहीम,
ये कैसा जूनून ये कैसा बलबला हैं।

ऐसी क्या हैं नफरतें और अदावत,
के भाई को मारने भाई निकला हैं।

कहीं पे माँ मरी कहीं बाप खो गया,
के बच्चा  बच्चा अनाथ हो चला हैं।

बुझे जिनके चिराग,करे कैसे माफ़,
के ये क़त्ल तुम्हारी ही तो खता हैं।

बंद करो अब खंजर और सियासत,
के बहुत खून इंसानियत का बहा हैं।

रामकिशोर उपाध्याय
10.9.2013
पलकों पे फलक
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पलकों पे फलक हैं और आँखों में जमीं,
सजधज के बारात तेरे दर पे आके थमी।

लबों पे प्यास हैं और मेरे हाथों में जाम,
वस्ल की ये रात तेरे इशारे पे आके रुकी।

पतवार भी तू हैं और नाखुदा भी तू ही,
फिर भी कश्ती साहिल पे आके भटकी।

रामकिशोर उपाध्याय

Saturday, 7 September 2013

सुबह मिलते हैं ! 

आओं एक दिया मिटटी का रोशन कर ही लते हैं,
के मिटटी में लिपटी ये रूह अब भटकेगी तो नहीं। 

राम किशोर उपाध्याय


सजा लूँ मैं आंचल खिलते फूलों से,
अब तो मुक्त कर दे चुभते शुलों से.

देना ना कोई दंड हलके गुनाहों का, 
अब मुह मोड़ नहीं सकते भूलों से . 

रामकिशोर उपाध्याय
के हालात बेकाबू से होके अजीयत बढा रहे हैं , 
शायद तेरी दवा की आजमाइश अभी बाकी हैं। 

न मैं रोज जी रहा हूँ न मैं रोज मर ही रहा हूँ ,
शायद नये दाँव की आजमाइश अभी बाकी हैं। 

तेरे हर दर पे सज़दा कर रहा हूँ परवरदिगार !
शायद मेरी सदा की आजमाइश अभी बाकी हैं। 

राम किशोर उपाध्याय
मैं एक आकाश हूँ 
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मैं एक बहती नदी हूँ 
चट्टान आने पर राह बदल के आगे बढ़ी हूँ 

मैं एक बहता झरना हूँ 
शिशिर आने पर चट्टानों से बह निकला हूँ 

मैं एक सूरज हूँ 
निशा आने पर अगले दिन फिर चमका हूँ

मैं एक सुविचार हूँ
आलोचना आने पर परिपक्व हो फैला हूँ

मैं एक मंजिल हूँ
मील आने पर अगले पत्थर को चली हूँ

मैं एक गागर हूँ
ग्रीष्म आने पर और ठंडी हो प्यास बुझाती हूँ

मैं एक बादल हूँ
हवा आने पर धरा पर घनघोर बरसता हूँ

मैं एक विषय हूँ
अवरोध आने पर तेजी से खुद बदलता हूँ

मैं एक पवन हूँ 


ऋतु आने पर भिन्न भिन्न गति पकड़ता हूँ

मैं एक ऋतु हूँ
सूरज आने पर अवनी के मेहंदी रचती हूँ

मैं एक आकाश हूँ
परिवर्तन आने पर सबको सहेजकर रखता हूँ

रामकिशोर उपाध्याय

Sunday, 1 September 2013

उन्वान 'जिगर' मैं ,,, हूँ ,,,,ना '

के किसको खबर करे,,उन ख़ामोश ख्वाबों की,
जो उतर गए जिगर में सीधे बोलती आँखों से.

जेहन में हुए फसाद में सब लहूलुहान हो गए ,
कुछ भाग निकले,,कुछ तकते  रहे सलाखों से .

ke kisko khabar kare un khamosh khvaboN ki,
jo utar gaye jigar me seedhe bolti ankhoN se.

jehan me huye fasad me sab lahuluhan ho gaye,
kuch bhag nikle, kuch takte rahe salakhoN se .

Ramkishore Upadhyay
1-9-2013