Friday, 31 May 2013


Unwaan "Qatil"

जिन्दा लाशों है दर -दर पे इस शहर में, फिर भी इन्हें कोई कब्रिस्तान कहता नहीं है
तराशे जाते है खंजर जुबान के घर-घर में ,फिर भी उन्हें कोई क़ातिल कहता नहीं है
 
jinda lashe hai dar-dar pe is shahr me, fir bhi inhe koi qabrisatn  kahta nahi hai
tarashe jate hai khanjar jubaN ke ghar-ghar me, fir bhi unhe koi qatil kahta nahi hai.

Ramkishore Upadhyay
Unwaan "Qatil"
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ओ मेहरबां कातिल! तू फरेब से  वार ना करना
हूँ जब सज़दे में तेरे मैं, तब कोई देर  ना करना

O mehrbaN qatil! tu fareb se vaar na karna
HuN jab sazde me tere maiN, tab koi der na karna

Ramkishore Upadhyay

Tuesday, 28 May 2013

ये हमारी बुतपरस्ती की हद थी, शायद 
++++++++++++++++++


झुकाके नज़रे उनको सलाम कह दिया 
ये हमारी सजदों की हद थी,शायद 

उनके कंवल से कदमों को बार -बार चूमा
ये हमारी बुतपरस्ती की हद थी, शायद

देखने भर से भी दिल को करार आगया
ये हमारी इबादत की हद थी,शायद

सहके सितम भी जुबां पे नाम ना आया
ये हमारी शराफत की हद थी,शायद

जालिम ने आशियाने को फूंक तक डाला
ये हमारी बर्दाश्त की हद थी,शायद

राम किशोर उपाध्याय

Saturday, 25 May 2013


 ढूंढ़ ही लेंगे बहारे सहर में और जहाँ कही वो गुम हो गए हो,
 हमने तो बहकती हुई गलियों को रास्ते पे आते हुए देखा है। 

dundh hi lenege bahare seher me aur jahaN kahiN vo gum ho gaye ho,
hamne to bahakti  huyi galiyoN ko raste pe aate huye dekha hai.

Ramkishore Upadhyay

साथ चल सकोगी फलक तक ,मै नंगे पांव हूँ
तुम चिलचिलाती धूप और मै  ठंडी छाँव हूँ ।

saath chal sakogi falak tak,mai nange panv huN
tum chilchilati dhup aur mai thandi chhaNv huN

Ramkishore Upadhyay
26-5-2013

मुफलिसी जरुर है, इज्ज़त की रोटी खाते है
आईपीऐल में भाई हम सट्टा ..नहीं लगाते है

muflisi jarur hai,izzat ki roti khate.. hai
IPL me bhai ham satta nahi lagate hai

Ram Kishore Upadhyay

आज आसमां ने गुस्से में चाँद को नीचे  धकेला
चमकी मुफलिस की आंखे खुदा ने भेजा निवाला

AAJ AASMAAN ME GUSSE ME CHAND KO NEECHE  DHAKELA
CHAMKI MUFLIS KI ANKHE KHUDA NE BHEJA NIWALA

RAMKISHORE UPADHYAY

Thursday, 23 May 2013


हाइकु
++++

(१)
तप्त ह्रदय
शीतल हो फुहार
प्रेम अपार

(२)

चक्षु मिलन
अवनि की चादर
मधु यामिनी

(3)

 सिन्धु के पास
लहरे हैं उदात्त
नाविक गुम
 (4)

खोजी पथिक
निरन्तर प्रवास
लक्ष्य सुलभ

राम किशोर उपाध्याय

Wednesday, 22 May 2013

मन सुने माँ सरस्वती की मधुर वाणी


एक मुट्ठी में धूप और एक में   चांदनी
हवा की सीढ़ी से चढ़े कल्पना सुहानी  

पेड़ों के कलम और समंदर की स्याही
अम्बर के कागज़ पे लिखे नई कहानी

किरणों के रंग,अवनि सा बडा केनवास
रंगबिरंगी हो जाये अपनी ये जिंदगानी

लहरों पे उड़े मन भावनाओं की नांव
उमंग से भर जाये प्रीत अपनी पुरानी 

चंदा की हो पायल सूरज की करधनी
सितारों से सज जाये जग की जवानी  

शब्दों के हो पुष्प, गीतों से करे  श्रंगार
मन सुने माँ सरस्वती की मधुर वाणी 

राम किशोर उपाध्याय




किसी की सेज़ पे बिछने  और कदमबोशी से क्या है  अपना वास्ता 
हम तो खुदा के नायाब फूल है जो सहरा में भी खिलते है  बेसाख्ता

kisi ke sej pe bichhne  aur kadamboshi se kya  hai........apna vasta
ham to khuda ke nayab fool hai jo sahra me bhi khilte hai besakhta

राम किशोर उपाध्याय

आज भी ,,,,,,,,,,,,,,,,,,


गर्मी
और लू के थपेड़े
तरबतर कमीज
नख से शिख तक
एक  कोठरी में बिन पंखे के
प्रसन्न पोंछते रहे स्वेद के बिन्दू
सर्द हवाओं का   तीक्ष्ण प्रहार
हड्डीयों तक प्रवेश
रिमझिम या फिर मूसलाधार वर्षा
पत्नी ने कहा फिर भी रुके  नहीं
कदम ---
बस बढ़ते ही गए आगे ही आगे ही
कई बरसों से यही हो रहा है
आज भी  ,,,,,,,,,,,,,,,

गीली-गीली लकड़ी पर फुकनी से
फूंक मारते -मारते चौके के चूल्हे से
केरोसिन का स्टोव
फिर एल .पी .गैस के  चूल्हे तक
बदला नहीं तो तवा ,,,,,,,,,,
हाथ वैसे ही जलते है पत्नी के
पहले मेरे लिए
और अब मेरे बच्चों के लिए पकाते- पकाते  खाना
आज भी ,,,,,,,,,,,,,,,,,,

Tuesday, 21 May 2013


TUJHE CHAHNA MERI NAYI KAHANI  NAHI ,
AAYE YUN HI ANKHON ME VO PANI NAHI

तुझे चाहना मेरी नयी कहानी नहीं
आये यूँ ही आँखों में वो पानी नहीं

राम किशोर उपाध्याय
वो बड़े शौक से खुद को बेचने घर से निकले
पलटकर  देखा  तो सब नोट नकली निकले


Vo bade shauk se khud ko bechne ghar se  nikle
Palatkar dekha to sab not nakli nikle

Ramkishore Upadhyay


End Of  The Wait

When I behold you
My hopes take the wings
To soar high in the sky with grandeur
To mingle with its ethereal mood
Stars let loose out of the umbrella
To twinkle in my hairs
Moon walks with small feet
Up and down to the earth in rare fete
And sprinkle its soft silky light
Around me to keep away from public gaze
The charioteer with seven horses
Rises from horizon to bloom hundreds flowers
Draped in milky white costume
And crown glittering on head   
Riding on golden rays
Slowly descend with perfect ease
To cuddle the cosmic beauty
The poetry of love
Chiseled with most enchanting words
Roses all the way down their head in reverence
And drop their red and pink petals
To weave a welcome carpet
To thy gate ……………………….
To end the perpetual wait….!!!!

Ramkishore Upadhyay

Monday, 20 May 2013


ये कैसी अजीब कशमकश है  उल्फत में
दिल के कहे को   दिमाग मानता  नहीं ,

वो अक्सर हमसे सवाल करते रहते है  
सुनते हो क्यों उसकी जो धड़कता नहीं .

तमन्नाओं के मेले में हम तो अकेले है
कर रहे है आरजू उसकी जो सुनता नहीं

ढूंढती है आंखे उस महबूब-ए-खास को
गुम हुआ जो उजाले में वो मिलता नहीं

लहरे भी लौट जाती है एक वक़्त के बाद
नादाँ मौजों को साहिल कभी मिलता नहीं

राम किशोर उपाध्याय

Thursday, 16 May 2013

Old Toys : Old Flowers 

I had treasure of toys 
Jumping monkey 
Laughing joker
Singing guitar 
Running trains , and what not..
It continued ....
Till one fine day 
Our house was abuzz with people
Congratulating my father 
I peeped through the  hiatus
A baby was weeping in the arms of my mother
I grew restless as mother was not calling me 
I threw  my toys 
And went into corner of my house
Lay sleep till maid me awake 
Baby started staring at objects
One day he hinted for monkey toy.....
Father rushed to market to buy new 
Though I had one
But whenever father bought a new toy 
Or any object of joy
For brother
His old toys  given to me for play
His desires became his need 
And nobody paid any heed 
To my need 
I still fail to understand 
Why old toys were given to me?
May be new things are meant for new 
Someday when I grow old 
My wife shall say 
Look, this is for your son
Then grand son
Man should understand 
The Nature decorates itself with fresh flowers 
And old  flowers are not even put on the dead  feet.

Ramkishore Upadhyay
16.5.2013

The Dream

Certain dreams are just dreams
They come and go out of one's eyes
In the darkness
Of the night itself
Some come to stay forever  
When seen in day with wide open eyes
Like longing for someone 
With no reason
With no regrets 
Then bloom Yellow Roses  
In the backyard of one's loneliness
And with thorns 
Yet prick not fingers
But cut the corners of the heart 
Just not to bleed 
Just not to make one sad
Just not to torment 
Just not to make cry in wilderness 
But just to enter softly in the arteries 
Just to shape the life 
Just to energize 
Just to carry the fragrance
Of the eternal love 
To every  part of the mortal  body
To the soul  
Thereafter no dream remains the dream

Ramkishore Upadhyay 

Blue Ocean

Yesterday 
Blue sky came searching 
Blue ocean on the earth 
I showed him way to my hut 
full of rugs
broken cot 

shoes  full of mud 
He saw me bare body and asked for my shirt
which was hanging on a rope in sun
I told him that it is stinking from soaked sweat
from the day's toil on the  farm
He squeezed it and took sweat on his palm
Murmured some sacred words
And blew over the earth
I saw that mother earth was pregnant with trees of fruit
Green meadows and crops full of grains waving around
Cows burdened with milk
Where is blue ocean?
The sky smiled and said
It is your sweat .....
There is no blue ocean as such
The drop of every sweat that a man shed is the blue ocean
I kept on seeing him going up and up merging with itself.


Wednesday, 15 May 2013

बार -बार फोटो भी लगाया अपने साथ मैंने उनका ,
फिर भी ज़माने को खबर हो गयी कि हम तन्हा हैं । 

Tuesday, 14 May 2013

बस तुम ही तो हो 

तुम नभ का वो विस्तार हो
जहाँ दृष्टि भी दृष्टि को खोजती हो
अवनि का वो कोना हो
जहाँ सूर्य की किरण भी
निशा में  अवलंब तलाशती हो
घने घने पेड़ों वो लम्बी छाया हो
जो पेड़ की जड़ का ठौर पूछती हो
भावनाओं का गहरा सागर हो
जो किश्तियाँ डुबोता नहीं, निगलता हो
लालित्य का वह प्रतीक हो
जो रस ,साहित्य की व्यक्त विधा की परे हो 
वो मधुर गीत हो जो
संगीत के बंधान से मुक्त
झरने सा प्रवाहमान
वो विज्ञान हो जो
लौकिक ,अलौकिक और पारलौकिक
मष्तिस्क के भेद से भिन्न
तुम
छाया हो,
प्रतिच्छाया हो
या माया हो
मुझको छलने वाली

पर माया ही क्यूँ हो ?
मष्तिस्क पर पड़ा आवरण क्यों नहीं हो ?
धुंद की साड़ी में लिपटी भ्रम की छाया ही क्यूँ हो ?
द्वन्द मी सिमटी प्रतिच्छाया सी
धूप में खिलती चांदनी की शीतलता का
मादक बिम्ब क्यों नहीं हो?

तुम  जो कुछ  भी  हो या नहीं हो
क्या अंतर पड़ता है,
जब तुम सामने खड़ी हो
तुम मेरे चक्षु -दर्पण में
बाल संवार रही हो
और मै  बिना पलक झपकाए
कई रात से सोया नहीं हूँ
और बार-बार कंघी उठाकर तुम्हे दे रहा हूँ .......................

राम किशोर उपाध्याय 




क्या अंतर पड़ता है,

नभ का विस्तार
अवनि की बड़ी सी चादर
किसी पीर की दरगाह पर  
क्षितिज तक फैली हुयी
सागर की उद्दाम लहरे
जो किश्ती डुबोती नहीं
बस लील जाती हो
झींगे और मछलियों की तरह
जल बिन व्याकुल
ह्रदय को सीप में छिपाकर
चोरी से बचाती
भावनाओं को तरंगों में समेटकर
अनकहे शब्दों में अदृश्य
छोटे  वृक्षों की लम्बी छाया
ताल  में खिले कंवल
सूर्य की किरण का भ्रम कराती
धुप में खिली चांदनी सी मोहक
लालित्य का अनुपम भंडार
साहित्यिक अभिव्यक्ति से परे
अलभ्य सोंदर्य से  श्रृंगार को चिढाती

किसी  विशेषण से अधिक विशेष



तुम ही तो हो
तुम कभी  कहते हो कि माया हो ?
कभी बताते छाया हो ?
और दिखाते कि प्रतिच्छाया हो ?
लौकिक,पारलौकिक
और अलौकिक की स्थूल और सूक्ष्म की मर्यादा से विहीन हो
दिग्दिगंत तक प्रसारित निर्बाध सुगंध हो !
जीवन  का  जीवन से अनुपम अनुबंध हो !
हो ना जिसके बिन सवेरा
वो उषा की पहली किरण  हो !
क्या अन्तर पड़ता है , तुम क्या हो ?
मेरे लिए  बस तुम  हो , यही क्या कम है !!!!!!!!  
  
राम किशोर उपाध्याय


  


Neele ambar pe chhaya  ghan gira raha jeevan ambu
Neele halahal pee bachagaye jagjeevan  Shiv Shmbhu

नीले अम्बर पे छाया घन गिरा रहा जीवन अम्बु'
नीला हलाहल पी बचा रहे  जगजीवन शिव शम्भू  

Ram Kishore Upadhyay

Saturday, 11 May 2013


विश्व मातृ-दिवस पर मेरी पूज्य माताजी को सादर श्रद्धांजली

कैसे कह दूं कि एहसान नही कोइ मुझपे
हर अहसास-ए-जिन्दगी हैं तेरा करम,मां

राम किशोर उपाध्याय


रेजा-रेजा हो गई जिन्दगी तमाम कुछ इस तरह
किसी ने खुशबू कहा ,किसी ने कहा जीये बेवजह

reja-reja ho gayi jindagi tamam kuchh is tarah
kisi ne khushbu kaha, kisi ne kaha jiye bevajah

 Ramkishore Upadhyay

आप यही सोच रहे होंगे
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यंहा सर्द हवांए हैं
यहां घनी धुंध हैं
यहां कुछ दिखाई नही देता हैं
तेज लू के थपेडे लग रहैं
लोग मुंह पर कपडा लपेटे हैं
बाढ भी आई हुई हैं
सागर में चंचल लहरे भी आजा रही हैं
नदी भागी जा रही हैं
झरने झर रहे हैं
पर्वत पर बर्फ पिघलती हैं
अवनी व्यस्त हैं सृजन में
अंबर तारो से भरा है
निशा चांद से संवाद कर रही हैं
दर्द कही व्यक्त हो रहा हैं
संगीत कही बज रहा हैं
कही मातम छाया हैं
भ्रमर गुंजायमान हैं
प्रमिका विरह में हैं
प्रेमी कही त्रस्त तो कही मस्त हैं
और ना जाने क्या क्या हो रहा हैं

यह ब्रम्हांड का चित्रण ही होगा
आप यही सोच रहे हैं  ना,,,,,,

नही, यह मेरी कविता की चंद पंक्तियां हैं
जिनके इर्द गिर्द मै अक्सर तानाबाना बुनता रहता हूं
कुछ आपके लिए
कुछ अपने लिए,,,

राम किशोर उपाध्याय

Thursday, 9 May 2013

मेरी जिन्दगी -मेरी बंदगी
++++++++++++++++

वो आई
मेरी पलकों के पालने में झूलती 
बस गयी आँखों में,
सोन्दर्य से परिपूर्ण
पर काजल नहीं थी
गुरुता लिए
पर वो नींद भी नहीं थी
चंचल लहरों सी अठखेलिया करती 
वो शरारत तो कभी  नहीं,
वो थी चाहत की चमक
जीने के विश्वास की ललक
अनंत तक
सहचरी बनने की अक्षुण्य कामना लिए
उतर गयी अंतर के सुदूर क्षितिज तक
उदात्त ,मदमस्त
व्यस्त , कभी -कभी अस्तव्यस्त
ओज से सिक्त
बद्ध भी और मुक्त भी
भोग भी और योग भी
आस्था भी अनास्था भी
ईश के निकुंज  से निकल कर
बिना पदचाप के
और न जाने कब बन गयी
मेरी जिंदगी !!!!
मेरी बंदगी  !!!!!!

राम किशोर उपाध्याय 

Wednesday, 8 May 2013

प्रेम से मुक्ति ?
+++++++++

सूर्य की
रश्मियों  पर आरुढ़   
होती अग्रसर
भोर में धरा की ओर 
वह धीमे कदम रखती  
पवन के झूले में झूलती
बादलों से बातें करती
मोहक,छुईमुई सी नाजुक
गतिहीन  होठों से संवाद  करती
दामिनी सी दमकती
वह सायास
ह्रदय पटल पर अंकित
कर जाती वह  --------
जो सहज प्राप्त नहीं
राजर्षि और  ब्रह्मर्षि को भी
सतत साधना से
सम्पूर्ण समर्पण --
देह का देह में 
विदेह का विदेह में
अनंत
असीम
राग, अनुराग , प्रेम ---------    

और ----------
देह से मुक्ति है संभव
योग ,ज्ञान व अनुभव के सोपान से 
परन्तु ------------
क्या प्रेम से मोक्ष प्राप्त होता है ?


 राम किशोर उपाध्याय
  

Tuesday, 7 May 2013

तेज़ आंधियों ने जला डाला   प्यार का आशियाना
दिल बांस की दीवारों और फूस की छत का जो था

अश्क सूख गए उसका अक्स बनाने में
वो जालिम बार-बार चिलमन गिराता

वो प्यार  नहीं सदा नफरत  करते रहे 
एक हम थे जो दिल में लों जगाते रहे 


आओ आज फिर से जीने एक सौदा करे
एक नयी चाहत तलाशने का वायदा करे
टूटी हुयी कश्ती को ढोने से क्या फायदा
बस बेख़ौफ़ लहरों से लड़ने का इरादा करे


आओ आज फिर एक तमाशा करे
नए भाषण और जुमले ठोका करे
कुंद  खंजर को फिर से तराशा करे
धीरे से लोगो की पीठ में भोंका करे   

राम किशोर उपाध्याय 

Friday, 3 May 2013

उन्वान " रोनक '' शेर -२

hai milne ki tamannaoN ki ronaq teri ankhoN me
ya fir katal karne se pahle ki mizazpursi hai.

है  मिलने की तमन्नाओं की रोनक तेरी आँखों में,
या फिर क़त्ल करने से पहले की मिजाज़पुरसी है।

राम किशोर उपाध्याय 

बस तू देखता चल !
++++++++++++++++

आयेगी मंजिल  तेरे पास
होसला रखकर, बस तू देखता चल

हवा ना बुझा सकेंगी चिराग
ओट लगाकर , बस तू देखता चल

कमजर्फों से ना पाल उम्मीदें
चल संभलकर, बस तू देखता चल

सहरा  भी हो जायेगा पार 
ऊंट पकडकर ,बस तू देखता चल

मिलेंगा तुझे खुदा भी यहाँ
ध्यान जमाकर,  बस तू देखता चल

ख्वाहिशें होगी  पूरी सब 
रख यकीं उसपर,  बस तू देखता चल    

 राम किशोर उपाध्याय 
जितना हो सके तू अपना दर्द-ओ-गम रख छिपाकर ज़माने से,
यहाँ अजीब रवायत है, लोग रोकर सुनेंगे और हंस के उडा देंगे।

jitna ho sake tu apna dard-o-gam rakh chhipakar jamane se
yahN ajeeb rawayat hai,log rokar sunenge aur hans ke uda denge.

राम किशोर उपाध्याय 

वो गम-ए-इश्क में भी चेहरे पे रौनक सजा कर रखता  है,
कही दोजख़ के नुमाईन्दे उस बेवफ़ा का नाम ना पूछ बैठे।

राम किशोर उपाध्याय  

Wednesday, 1 May 2013

 कल और आज 

पिताजी के पास थी
एक साईकल फिलिप्स की ----
कही भी कभी भी रुक जाती थी
बस एक इशारे पे------
हमें ढोते -ढ़ोते
कभी भी मना नहीं करती
आज मेरी  कार ऐसे नहीं रूकती
कभी बेटा मना भी कर देता
बैठने से ,,,,,,,,,,,,,,,,,,

मै मचल जाता था अक्सर
मिठाई की दुकान के सामने आकर
पिताजी मेरी मांग पूरी करते
आज मेरा बेटा
जिद नहीं करता
पता नहीं कब ऑर्डर देता
सीधे ही पिज़्ज़ा का बिल थमा देता
और मै चुपचाप
पर्स को निकालने लगता ,,,,,,,,,,,,,,,

राम किशोर उपाध्याय