Thursday, 28 June 2012


जो पाली चाहत हमने बसने की दिल में
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जो चाही हमने इजाज़त रहने की नैनो में ,
तो पहले से ही इनको काजल से भर लिया .

जो जाहिर की मंशा  रहने की जुल्फों में,
 तो पहले से ही इनको फूलों से सजा लिया

जो मांगी  मोहलत लटकने की कानों  में ,
तो पहले से ही इनको झुमको से पटा लिया .

जो हमने की गुज़ारिश सजने की लबों में ,
तो पहले से ही  इनको सुर्खी से रंग लिया .

जो पाली चाहत हमने बसने की दिल में ,
तो पहले से ही इसको चुनरी से ढंक लिया .

जो मांगी हमने मन्नत सिमटने की कटि में ,
तो पहले से ही इसको करधनी से छुपा लिया .

जो रखी ख्वाहिश हमने रचने की पाँव मे,
तो पहले से ही इनको महावर लगा दिया .

Tuesday, 26 June 2012



woman and orchid


तुम्हारी ये अनकही

 
आज ---
पुष्प भी मुरझा रहे हैं बिखरी धूप में,
तारे भी रो  रहे हैं छिटकी चांदनी में,
भांपकर
तुम्हारी ये उदासी—

परिन्दे भी बदहवास उड रहें हैं नभ में,
हिरने भी चलरहे हैं सहमें-सहमें बन में,
समझकर
तुम्हारी ये आँखे बुझी   ---


भंवरे भी डोल रहे हैं बेखबर उपवन में ,
कोयलें भी बोल रहें हैं उखडें मन सें,
देखकर
तुम्हारी ये बेरूखी—

शब्द भी थम रहे हैं कण्ठ तक ,
भाव भी रूक रहें हैं होंठ  तक,
सुनकर
तुम्हारी ये अनकही –

चुभन भी हो रहा हैं तन में,
रूदन भी हो रहा हैं मन में,
सोचकर
तुम्हारी ये बेबसी--

Wednesday, 13 June 2012


भ्रम

शिला सी बन
लस्त  पड गयी
मैं
भयाक्रांत होकर कि वो आयेगा
और
मेरे  शील को
मेरे  पंचभूत को
बरसों से सुरक्षित मेरे सौंदर्य को
तार -तार कर जाएगा
और
मैं
मुर्दे के साथ चलते हुये
पानी के घड़े के समान
अपनी ही चिता के सामने
फोड़ दी जाऊँगी –
अभिशप्त हो जाऊँगी
फिर उसी पंचभूत मे विलीन होने के लिए

पर वो क्या मेरे 'स्व' को छु पाएगा
स्थूल तो नाशवान है ही
यह सोचकर मुझमें
थोड़ी सी हरकत बाकी थी
वो आया तो ..
पर दो फूल रख गया
एक अपनी विश्वसनीयता पर
और एक मेरे भ्रम पर   !

बड़ी संख्या

ऐहिक प्रयोजनों के
दैनिक अपव्यय से
खुद को
शेष—
रखना चाहता हूँ.
जी सकूँ
उस सत्य के प्रति
कुछ कर सकूँ
जो आलोकित हो दिव्यज्ञान से...
पा सकूँ
अमरत्व ...
जो हो दिवास्वप्न
शेष मानवता का..

एक तुम हो –
प्रेम  के प्रदीप्त स्तंभ
हर पल अपनी चाहत में  
कुछ अंक जोड़ जाते हो
सम होने के लिए ताकि मैं
शेष
न रह सकूँ
तुम शायद ये समझते हो कि मानव नहीं हूँ
मैं –
गणित कि कोई
बड़ी संख्या हूँ !



प्रतीक्षा

हैं यह कैसी प्रतीक्षा ----
जहां सागर भी सम्मुख हैं
और जहां किनारा भी निकट हैं
जहां मल्लाह भी किश्ती लिए खडा हैं
और पतवार भी बाजू में पडी हैं
मंजिल का भी पता हैं
पर बंधे हैं पहाड पैरों में
जो बढने ही देते कुछ भी आगे
और आवाज दे रहा हैं प्रियतम मेरा ---
हैं पलके विस्तारित क्षितिज सी
पर कर नही सकती सामना
सूर्य का , चंद्र का ,
और दिख रहा हैं प्रियतम मेरा—
हैं नीरवता तट पर
पर लहरे कर रही हैं शोर भीतर ही भीतर
पर्वतों के शिखरों से ऊंची ये उदासी मेरी
अन्दर बंद  कमरे में बस सिसकती हैं,
देखकर भी साहस छोटे-छोटे परिन्दो का
जो करते हैं यात्रा दूर परदेस की
पर मै तय नही कर पाता
बस एक छोटा सा रास्ता--
करता रहता हूं बस प्रतीक्षा
है ये कैसी प्रतीक्षा ?


एक टुकडा रात

सो न पाई रात
कल सुबह तक
चाहती थी मिलन सुबह से
मुझे पता तब चला
जब ऊषा  की किरणें
अतापता करने आई मेरे बिस्तर तक –
उस सलोनी रात का
जो सो न पाई थी
अमावस में अपने प्रियतम का –
कल चांद-
चांदनी समेट कर
चला गया दूर परदेश में
मुझे पता तब चला जब
ओस के मोती
वाष्प बनकर उड गये
बादल की बूंदे बनने आकाश तक-
चांद की चांदनी का पता पूछते-पूछते,
उस रात
जो सो न पाई थी
अगले  सुबह तक
चाहती थी मिलन सुबह से---
गडरिया खोल कर अपनी बकरियां
चल पडा उस चरागाह की और
एक डंडा हाथ में लिए व डाले चादर कांधे पर
जंहा से वह कल शाम को आया था
मुझे पता तब चला
जब पता पूछता मेमना आया
अपनी मां का
जो बिना पिलाए दूध चल पडी थी चरने
उस सलोनी रात में
जो चाहती थी मिलन सुबह से ।


भविष्य

पूछते हो क्यों अपना
भविष्य –
वो ना तो लिखा हैं
हाथ की रेखाओं में
ना लिखा हैं
माथे पर पडी लकीरों पर
वो तो कैद हैं
आपके हाथ की मुटठी में-
अगर जोर से मारो तो
पत्थर टूट कर  जलधार बहे
ना मारो तो
हाथ टूटे और भाग्य फूटे ।