Saturday, 29 December 2018

नदी का खामोश हो जाना


वह निकली ही अकेली थी
वह पिघली भी अकेली थी

हँसती रहती वो पलपल
पवन को सुनाती रहती
गीत मधुरिम हो विह्वल
मिलाती सुर कोकिला से
सदा करती वो कलकल

उसका बहते रहने  न भाया
कुछ ले आये फावड़े,मशीन
कुछ ले आये ट्रेक्टर ,,,,और
खोद डाला अस्तित्व महीन

किसी ने उसे एक नद से जोड़ डाला
कहीं उसको रोककर जड़ दिया ताला
बलात निरंतर प्रवाह को मोड़ डाला
कोई ले आया कचरे का एक नाला
सुरसरि में बहने लगा  काला-काला
सो गयी जो भी थी उसकी सहेलियां
क्रोधित मछुवे ने जाल  तोड़ डाला

लोग अब भी जुट रहे हैं उसके तट
लेकर आस्था का अर्द्ध या पूर्ण घट
किन्तु वह अब नहीं चाहती बह जाना
मगर किसी को पता ही नहीं
उसका धीरे-धीरे खामोश होते  जाना
सरकारी विज्ञापनों  में
नदी अभी  भी ज़िंदा है
××
रामकिशोर उपाध्याय

Wednesday, 12 December 2018

ठंडा होता सूरज


हर तरफ शोर है 
धुंध में लिपटी भोर है 
खाकर जमीन की कसमें 
पेड़ों को हवाएं लील रही है 
समंदर में उबल रही हैं 
मछलियों की बस्ती
बादलों से बरस रही है
तेजाब की सूखी नदी
ध्रुव पर पेंग्विनों की
लाशों के अंबार हैं
कहने को सावन की फुंहार है
धवल चान्दनी अब जल रही है
पर सत्ता की घुड़दौड़ में
पश्चाताप नहीं,वार्तालाप नहीं
केवल प्रलाप है गहरे
या चल रहे हैं मौहरे
आमजन के वक्षस्थल पर रुपहले
कुछ तुरप के पत्ते ...नहले पर दहले
और न्याय का सूरज .....
ठंडा हो रहा है उदय होने से पहले
*
रामकिशोर उपाध्याय

कबतक चलेगा अंधेरों का राज


कहती रहती मत सोना और उठ जा तू
ओस में भी पेड़ की कोटर को बना लेती अपनी रजाई
फिर सूरज की किरणों से करती अपने गमगीन गीले पंखों की सफाई
बच्चों की खातिर खेतों में लगती दाना चुगने
आँख मीचकर करने लगती सपने बुनने
देख -देखकर शोर करते बच्चे
सारे जग के लगते अच्छे
नहीं किसी से भेद वह करती
मुंडेर पर बैठकर शाम को वह रहती हँसती
दूर गगन में उडती रहती पर नहीं भूलती घोसला अपना
नहीं तोड़ती किसी के घर का सपना
मगर उसकी ख़ुशी न बाज को भाती
बच्चों को पीछे से वह बतलाता उनकी जाति
कहता तुम कोयल हो,तुम हो कागा
फिर कैसे बंधा तुम्हारे मध्य ये प्रीत का धागा
बच्चे अब हो रहे थे बड़े
अपने पैरों पर होने लगे थे खड़े
अब नहीं खाते वे माँ का लाया तिनका दाना
अब उड़ाने लगे है बाज का फैंका मांसाहारी स्वादिष्ट खाना
माँ देख रही थी जलता घर सुहाना
उसको डस रहा था डर अनजाना
सोने का घोसला बनाने को उकसा रहा था बनकर गिद्ध
कर रहा था अपनी सत्ता का मकसद सिद्द
पेड़ों पर सोने के पिंजरे लटक गये धीरे -धीरे
पाँव में बंध गई लोहे की जंजीरे
मुंह पर ताले और धूप को निगल गए अँधेरे
अब कलरव नहीं होता, गाते सिर्फ भक्ति गीत वे सुबह- सवेरे
मन में सन्नाटा,तन पर हावी धन कुबेर
मुनिया आती नही अब मुंडेर
देख उसे एकदिन उपवन का एक माली बोला
कैसे हो आजाद ..... यह रहस्य खोला
फिर रोना भूल गई वह मेरे बन की चिड़िया
एकदिन जरुर होगी फिर से .........उसके खुले पंखों पर दुनिया
बढ़ता है जब -जब वंचितों के संतापों का ताप
सिंहासन पर भारी पड़ने लगते हैं जन-मन -गण के अभिशाप
प्राची से सूर्य उगेगा,आखिर कबतक चलेगा अंधेरों का राज
जनता ही ले लेती है एकदिन हर नरपति के सिर से ताज
*
रामकिशोर उपाध्याय

कोई रक्कासा नहीं हैं यहाँ



आज भी कल जैसी ही है एक रात 
रोज की तरह फिर वहीं बात 
वही तकिया ...
वही दो सर ..धड़कते जिस्म
आँखों में सुरमें की सलाई नहीं ......
काजल की .उँगलियाँ घूमती है
माथे चौड़ी बिंदी ..
होंठ पर अंग्रेजी ,,ना बाबा ना ..हिंदी
फूल तो हैं मगर नहीं है खुशबू
लथपथ जिस्म से निकले पसीने की बदबू
लाओ डियो स्प्रे कर दूं ,उसने कहा
वरना सुबह कमीज से कई प्रश्न होंगे
भूले हुए मौजें हर जवाब दे देंगे ,मौजें मत भूलना
अब जाओ सुबह बिस्तर की सिलवटें ठीक कर दूंगी
अपनी पेंट ठीक से पहन लेना
एक पेग और लगाओगे ........
सिगरेट का एक कश.... धुआं धुआं ...
उड़ गई सब हया
तुम कल न आ सको तो बतला देना
मैं साहिल को बुला लूंगी
हां ,मेरा भी आना है मुश्किल
रेखा भी ,,अकेली है कल ..
जानेमन ! यह शहर का इश्क है
जिसमें है...
न जुनून
न सुकून .......
सिर्फ जिस्मों का रक्स है ...मगर नहीं है कोई रक्कासा
न वो ,,न रेखा और न ही कोई शालिनी या बिपासा
*
रामकिशोर उपाध्याय

Sunday, 9 December 2018

अलभ्य और अखण्ड .. ==============

हर शब्द ...
जब हो जाता है निस्शब्द 
तो ढल जाता है एक -एक करके सांचे में
बस वक्त के अदृश्य ढांचे में
और लेखनी को कर देता है बेजार
और रचनाकार हो उठता है बेक़रार
कभी उन्हीं शब्दों को कहता उदासी
बनकर जैसे हो कोई सन्यासी
ढूंढता अर्थ विरक्ति में
धर्म अथवा दर्शनविहीन भक्ति में
अवतरित शब्द ...
कभी जब नुपुर बनकर कहीं बजते
तो गीतों में प्रेम -संदेशों में जाकर सिमटते
भावविभोर हो पायल में जाकर टूट जाते
और वर्षा की बूंदों को तरसते चातक में मुंह में जाकर फूट जाते
खुले सीप में मोती बनकर प्रणय की अंगूठी में जड़ते
कभी विरह चट्टानों जैसे जड़ होकर राह में तड़पते
यही शब्द ...
शबनम में जाकर चुपचाप सो जाता
और परिंदों की चोंच में जाकर उजाले के बीज बोता
भोर की पहली किरण के रथ पर होता सवार
ले जाता रवि को पर्वत से उस पार
सायं को नायिका के प्रणय निवेदन के सुरों में खनकता
काजल सा आँखों में घुलता
मधुमास और मधुशाला में मध्य टहलता
प्यार और प्यास में बीच गमकता
वही शब्द ......
हर बार एक नया अर्थ खोजते
हर तर्क से नये विमर्श गढ़ते
विवश होते फूट पड़ने को
और नई कोंपलों जैसे नहा धोकर निखरते
मगर हर बार कविता बनकर
पुष्पित होते
फलित होते
और कवि के कंठ में मुस्काते
जैसे
भगवान शिव के गले में पड़े हो
माता पार्वती के हर जन्म के पड़े मुंड
प्रेम के प्रतीक स्वरुप अलभ्य और अखण्ड ..
**
रामकिशोर उपाध्याय
यह रचना आज सुबह से ही व्यग्र ही उतरने के लिए ...यह अमर कथा से प्रेरित है जो शिव भगवन ने माता पार्वती को सुनाई थी ..
21.4.2015

Wednesday, 5 December 2018

दिल में दीवारें लकड़ी की

सड़क पर पहुँचने के लिये 
पगडंडी छोड़नी पड़ी
पेड़ ,नदी, नाले और 
खेतों में फूलती सरसों छोड़नी पड़ी 
तितलियों के रंग और 
भौरों की गुंजन छोड़नी पड़ी
मधुमक्खी का शहद और
अमराई छोड़नी पड़ी
हवा में ठंड की खनक और
धूप की चमक छोड़नी पड़ी
और ,,,,,
धुंध में लिपटी सुबह और
शाम को सिसकती हिरनी मिली
पत्ते और पेड़ कटे छटे
और शाख पर घूमती चीटियाँ मिली
पानी का टैप और
दूध की मशीन मिली
कंक्रीट के घोंसले
और दिल की दीवारें लकड़ी की मिली
खुरदरी हथेली से
अब कैसे उनके कपोल सहलाऊँ
सोचता हूँ फिर से आदिम बन जाऊँ
*
रामकिशोर उपाध्याय

ये प्रश्न मुझसे से भी है ,, तुमसे भी है

तुलसी की पत्तियां डालकर 
अदरख के साथ उबालकर 
जब -जब पीता हूँ चाय ,,,,,,,,,,,,
ठण्ड ही नहीं मेरा डर भी हो जाता है काफूर .........
शब्द -तुलसी जब उबलती है
मजहब के अदरख के साथ
बड़ी सी केतली में
पीता तो तब भी हूँ यह चाय ...........
पर सिहर जाती है मेरी हड्डियाँ
डर खुद थरथराने लगता है बनकर लातूर
क्या जग छोडकर निकल जाऊं
और रणछोड़ कहलाऊं
बोलो ! कब आओगे कृष्णा
कब हरोगे शिव जग की तृष्णा
पुनर्पाठ करो अब फिर से शास्त्रों का
और पाठ करो जरा शोर से
जग जाए शेषशैय्या से हरि विष्णु
देखते हैं कबतलक .....
कब कहलायेंगे हम मानव ,कब होंगे सहिष्णु
पर क्या अनंत प्रतीक्षा करना उचित है
है कोई सोचने वाला
है कोई दीपक जलाने वाला
इस अँधेरी रात में ..............
ये प्रश्न मुझसे से भी है ,,
तुमसे भी है
*
रामकिशोर उपाध्याय

Friday, 10 August 2018

आत्म बोध

जन्म से मरण तक की सीढ़ियों के उसपार
शून्य से आरंभ और शून्य की ओर उन्मुख यह देह का आकार
खोज रहा है सदैव सत्य को
मैं ही नहीं
सन्यासी भी ...
अपनी तपस्या में
कवि .भी ..............
अपनी नवयौवना कल्पना में ,शिल्प में
लेखक ..
अपने गद्य में ..गल्प में
दार्शनिक ..
मर्मभेदी तर्क की कसौटी पर
वैज्ञानिक ..
निरीक्षण ,परीक्षण व अन्वेषण की जद्दोजहद में
क्या वह  मिलेगा .......
पीड़ित की दर्द भरी चीत्कार में
कबेले की सर्द सीत्कार  में
या ...
ध्रुव पर पेंग्विन की मस्त चाल में
या आगंतुक की पदचाप में
जो सुन रही है विरहणी टकटकी बांधे
या कोठे पर बजते घुंघरू में
चीत्कार ,सीत्कार ,पदचाप ,घुंघरू  ही
क्यों बनते हैं सत्य की अभिव्यक्ति .............
सत्य को खोजा सभी ने
क्या कोई  अंतर में बजते नाद में स्वयं को सुन पाया
कोई इसे खोज ले ,,,'
क्योंकि स्वयं की  खोज ही ...........सत्य की खोज है .......
*
रामकिशोर उपाध्याय


Wednesday, 1 August 2018

प्लेटफार्म ..स्टेशन का
==============
प्लेटफार्म .........पल-पल बदलता
कण- कण जीता
कभी उदास होता 
तो कभी ख़ुशी से अपने पदस्थल को तोड़ता
उतरते -चढ़ते यात्रियों की पदचाप से
कभी वेंडरों के शोर से ,
कभी ट्रेन के हॉर्न से ,तो कभी चुपचाप से
गार्ड की सीटी वैसे ही बोलती
जैसे माँ बच्चे को टोकती
कभी तेज ,कभी धीमी कूकती
सुख -दुःख और द्वन्द को तोडती
सावधानी के गीत ,नज़्म या ग़ज़ल में ढोलती
प्लेटफार्म भी करता है क्रंदन
जब किसी के छूट जाते है प्रियजन
टूटते सपने करते है अहर्निश रुदन
किन्तु होता है यहाँ जीवन का शाश्वत नर्तन
होता है यहाँ भारत का दिग्दर्शन
विपन्नता और सम्पन्नता का प्रदर्शन
कोई खाकर दोने फेंकता ...पानी उडेलता
कोई पान की पिचकारी छोड़ता
होता है सदा सुविज्ञ
पर लगता अनभिज्ञ
एक सन्यासी सा स्थितप्रज्ञ
तभी तो प्लेटफार्म ..तो दिखता है फ्लेट
पर होता है पूरा राउंड ........
और बोल उठता है यात्री (टिकट या बेटिकट ) कृपया ध्यान दे
मुंबई से आकर जा रही है दिल्ली
रुकेगी दो मिनट ,,,ये ट्रेन(जिंदगी की )  .......कुछ व्यस्त सी ........कुछ निठल्ली
*
रामकिशोर उपाध्याय
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संत ज्ञानेश्वर महाराज -आलंदी (पूना ) में

 · 
नमन संत ज्ञानेश्वर महाराज -२५ जुलाई २०१८  आलंदी (पूना ) में
********************
भारतीय संस्कृति आरम्भ से ही क्रिया ,भावना और ज्ञान के सम्यक समन्वय के साथ मानव जीवन को पूर्णता प्रदान के पवित्र उद्देश्य से समस्त मानव जाति के मार्गदर्शक के रूप में विश्व में आज भी शिरोमणि बनी हुई है । सुविधासंपन्न और आर्थिक रूप से समृद्ध होकर भीआंतरिक शांति की खोज आज भी समाप्त नही हुई है । यह खोज काल और देश निरपेक्ष रही है। पूरब अपनी आध्यात्मिक शक्ति के कारण समस्त विश्व को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है । भारत का कोना-कोना इस सुगंध से लबरेज है । इसी सात्विक अनुभूति के लिये जब पूना आगमन हुआ तो यह लालसा और प्रबल हो उठी । सभी जानते हैं कि महाराष्ट्र की भूमि संतों की पुण्य भूमि है और संत ज्ञानेश्वर उसके शीर्षस्थ संत है जिनकी समाधि आलंदी में पूना से मात्र 20 किमी है ,तो जाने की ठान ही ली।उस दिन पूना में आकाश मेघच्छादित था ,वर्षा कभी भी आ सकती थी परंतु मन तो उस पुण्य भूमि के दर्शन हेतु विकल था अतः निकल पड़ा । बेटी अर्चना ने अपनी गाड़ी ड्राइवर सागर शिंदे के साथ भेज दी। लगभग 40 मिनट की यात्रा के बाद हम आलंदी में थे । सड़क के निकट ही है संत ज्ञानेश्वर संजीवन समाधि मंदिर । वहाँ जाकर देखा तो दर्शनार्थियों की भारी भीड़ थे । लंबी घुमावदार पंक्ति में भी अन्य भक्तों की तरह लग गया । विशेष द्वार से जाने का अर्थ व्यक्ति के अहंकार को बढ़ाता है अतः अपनी श्रद्धा भावना की पूर्ति के लिये पंक्तिबद्ध होना मुझे उचित लगा । पूरे मार्ग में स्त्री पुरुष उनकी प्रार्थना पसायदान को भक्तिभाव के उच्चारित करते रहे । कहीं कोई हड़बड़ी नही,पूरी सहजता के साथ लोग अपनी बारी आने की प्रतिक्षा में चल रहे थे । लोग उत्साह से भरे थे ।प्रांगण में नर नारी प्रसन्नता से नृत्य कर रहे थे। उनके मुख पर संतोष का भाव परिलक्षित हो रहा था मानो संत समाधि का स्पर्श कर वे जीवन में पूर्णता प्राप्त कर ही लेंगे । लगभग 40 मिनट के इंतज़ार के बाद मैं समाधि द्वार पर था । समाधि को स्पर्श कर माथे से लगाया तो धन्यता अनुभव की । संत ज्ञानेश्वर महाराज ने मात्र 21 वर्ष तीन मास ओर पांच दिन की आयु में जीवित समाधि अपने गुरु एवं अग्रज संत निवृत्ति नाथ जी से 25/11/1296 (त्रयोदशी ,मार्गशीर्ष संवत 1218 )को दोपहर ढाई बजे ली थी । समाधि से पूर्व संत ज्ञानेश्वर महाराज इस स्थान पर कुछ वर्ष रहे ।कहते है वहाँ अजानवृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान लगाते थे अतः उस स्थान पर बैठकर उस महान संत की दिव्य ऊर्जा को ग्रहण करने की प्रार्थना की । संत ज्ञानेश्वर महाराज की दिव्य जीवन - यात्रा अगली कड़ी में । इस अवसर के कुछ चित्र । उनके चरणों में अपनी उच्चतम श्रद्धा भक्ति समर्पित करते हुये यह कामना करता हूँ
अनवरत आनंदे। वर्षतिये ।।
*
रामकिशोर उपाध्याय

Tuesday, 31 July 2018

राजपथ


*
सूखती रहे खेत में फसल
सूखती रहे माँ का वक्षस्थल
सत्ता की गाय को दुहते रहे अर्थकामी मध्यस्थ
धन्य है इस धरा का जनपथ .......
*
सुमन की लुट रही सुगंध
वतन की टूट रही सौगंध
शासकों को उचित अब यही कि शूल उपवन के छाँट मत
यही है आधुनिक राजपथ ........
*
धर्म की धुंधली होती रहे ज्योति
कृषक देते रहे नित्य प्राणाहुति
बीमे के राशि पर सत्ता मांग रही जनमत
धन्य है इस धरा का जनपथ .......
*
कोख सूनी धरा की
पास पूंजी जरा सी
बढ़ते अपराध को भूख की वजह मान मत
यही है आधुनिक राजपथ ....
*
दिवास्वप्न सब छल गये
गर्व के शिखर सब गल गये
भाषणों के चक्र पर ही चल रहा सत्ता का कीर्तिरथ
धन्य है इस धरा का जनपथ .......
*
पुष्ट हाथ को काम मांग रहा नौजवान
हतशीर्ष सैनिक ढूंढ रहा स्वाभिमान
राष्ट्रों की कृत्रिम रेखा है मानव -शोणित से लथपथ
यही है आधुनिक राजपथ ....
*
फडफडा रहा है खुली हवा में हर परिंदा
बिन जुबा के लाश में बदल रहे है जिन्दा
छोड़कर पगडंडियाँ, लपक रहा राज्य धन का वायुपथ
धन्य है इस धरा का जनपथ .......
*
देह पर धारण है वस्त्र प्रभु का
कर तिरोहित अग्नि उदर की ,ध्यान हो रहा विभु का
प्यालों में देश ढल रहा ,इधर उधर देख मत
यही है आधुनिक राजपथ ....
*
समता की क्रांति अब बुझ रही
डाह,प्रमीति धरा पर झुक रही
रक्त -रंजित है मानवता,मरणासन्न धम्म्पथ
धन्य है इस धरा का जनपथ .......
*
बह रही है नदी स्वार्थ की
मिट रही है सदी परमार्थ की
अर्थ के अन्धमार्ग के अनुगमन से जीवन है प्रमथ
यही है आधुनिक राजपथ ....
*
दंभ का हो तर्पण ,अहम का निष्क्रिय हो छद्म आवरण
सुबुद्धि करे वंचित का संभरण, शुद्ध हो धर्म का आचरण
तम मिटे ,उर खिले और मिटे क्रूर राजपथ
मिलकर करे जयघोष,ऐसा हो जनगण का जनपथ
*
रामकिशोर उपाध्याय
31 जुलाई 2018

Monday, 15 January 2018

अहसासों की दुनियाँ में 
अधिकारों को रहने दो 
चुंधिया गई हैं आँखें तो 
अंधियारों को रहने दो 
मेरी वेदना को छोड़ों पर
सरोकारों को रहने दो
तुम निर्मम सत्ता हो पर
बेढंगे आकारों को रहने दो
*
रामकिशोर उपाध्याय