Friday, 20 May 2016

मैं प्रकृति हूँ !! ***********

पेड़ की तूने हर शाख काट डाली 
नदिया तूने बाँध डाली
पवन को अब तू टोकता है
धरा को गहरे तक खोदता है
और बना डाले महल दुमहले
मगर सोचा नही यह कभी पहले
ये कंक्रीट के जंगल
मेरे एक झटके में हो जायेंगे कंकड़
करके सब विनाश
करेगा तू अब विकास
अब बादलों को भी तू है बांधता
गगन को अपने निकट है मांगता
देख , यह बारिश नही जो दिख रही है
यह मेरी पीड़ा है जो अब झर रही है
जान ले जब मैं नही बचूंगी ........
तो तू कहाँ बचेंगा
अब छोड़ दे यह लम्बी ड़ोर
मत लगा अतिउत्साह में जोर
और सोच कर बता कब थमेगा यह दौर
मगर जल्दी ..
मैं प्रकृति हूँ ......युगों तक तकती नही भोर
*
रामकिशोर उपाध्याय

Monday, 2 May 2016

लिख दो बस ...........प्यार


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सोचे बिना ही उस पथ पर चली 
छाँव मिलेगी या होगी कहीं धूप मनचली 
राह में क्या मिलेगे साजना 
नीड़ के तिनके जुटेंगे या होगा तूफान से सामना
अचानक मन ने कुछ कहा
लगा कही कोई भीतर लावा बहा
थी अनमनी मगर फिर भी बूंद सा ले हौसला
बढ़ गयी बस पुष्प के आंचल से कुछ मधु चुरा
नांव ली कागज़ की और भाव की पतवार
हो रही हूँ अब लहर पर फिर सवार
यह जिंदगी हो बेशक तेज धार
मगर जाना है मुझे वहां प्रियतम रहते जहाँ नदिया के पार
लो अब हो रही हूँ खड़ी
कलम तुम्हारी उधर क्यों सुस्त पड़ी
बस लिख सको तो लिख दो बस ...........प्यार
और करते रहना इसका सदा इज़हार
*
रामकिशोर उपाध्याय

Sunday, 1 May 2016

मधुशाला


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है धरती का रंग मटमैला
और अम्बर का नीला
हो गया सपनों का रंग सुनहला
जब गोरी ने घूंघट खोला
साँसों की सरगम बजी
धड़कन ने तोडा ताला
शब्द पवन से उतर आये
बदली ने अपना मुंह नीचे कर डाला
अब देख रहे क्या धरती को
उतरों अम्बर से और नीचे धर दो पाँव पायल वाला
तुम प्रीत गीत में भर देना
जिसके गाऊं नित होकर मतवाला
आँचल में थोड़ी छांव भी रखना
और पास में रखना जिस्म सूरजवाला
बहुत पी लिया गरल जगत का
नहीं चाहिए अब द्राक्षा की हाला
जब क्षितिज पर मिलों कहीं तुम
आँखों से छलके बस मधुशाला
*
रामकिशोर उपाध्याय