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शतधा आबद्ध
होकर दौड़ता हूँ उस गली में
जो जाती है तुम्हारे ह्रदय की कली में
पर आते ही तुम्हारा घर निकट
जाने क्या हो जाता है विकट
जो थम जाते है पाँव
कुछ तो है जो रोकता है मुझे ..............
शतधा प्रतिबद्ध
होकर सोचता हूँ उस उपवन का
खिलते हैं जहाँ जूही और चंपा
पर उन्हें वेणी में गूथने से पूर्व
जाने क्या घटित होता है अपूर्व
कुछ तो है जो मोड़ता है मुझे .........
शतधा कटिबद्ध
होकर प्राप्त कर लेना चाहता हूँ तनमन
और धरा को छोड़कर उड़ जाता हूँ गगन
पर न जाने क्षितिज आने तक
जाने क्या होता है अदृश्य
जो टूट जाते है पंख
कुछ तो है जो घूरता है मुझे ................
सोचता ही रहता हूँ क्यों
एक पड़ाव पर आकर एन्द्रिक अनुभूतियाँ अब हो जाती है निर्मूल
और हो जैसे सेमर का फूल
कुछ भी नाम दे सकते है ..
निष्ठुर ..निर्दयी
या निर्मोही
मगर यह है प्रेम का पर्व
जिसपर हमे है गर्व
यह तो है गीत ..
साँसों की द्रुत विलंबित लहरों का संगीत .......
समय को बांटते प्रहरों से प्रतीत ...
परन्तु हूँ और रहूँगा
सदैव
आबद्ध
प्रतिबद्ध
कटिबद्ध
बस प्रेम में ..
बस प्रेम में ...........
*
रामकिशोर उपाध्याय
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