इस जग-जंगल में
कभी पत्थर बनकर
किसी धारा के मध्य लोगों को पार उतारने के लिए
उनके पाँव अपने सर पे रखना लगा .....
कभी फूल बनकर
वेणी में सजने लगा ....
कभी मंदिर में घंटा बनकर
देव को पुकारने के भक्त का साथ देने लगा ....
कभी शजर बन कर
छाँव देने लगा ....
सभी के उपयोग में आने लगा
उनके अपने -अपने ढंग से
बनकर .....
कभी जड़
कभी जंगम
इस जग जंगल में
अगर नहीं था कुछ
तो था बस मेरे 'स्व' का अस्तित्व
किसी साधन और वस्तु से परे
एक जीवंत 'स्व'
जो हर उस चीज की कामना करता है
जो जग में निहित है ....
शायद प्रारब्धवश परिणाम यही होना था ...
फिर भी एक संतोष अवश्य है ...
कि कुछ न होने के भाव से मुक्त हूँ
और
कम से कम कुछ तो हूँ ...
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रामकिशोर उपाध्याय
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