Tuesday, 26 November 2013

"शीर्षक अभिव्यक्ति"-84 में उन्वान 
***तन्हाई/सन्नाटा/सूनापन/एकांत/अकेलापन*** 

यही हैं मेरा एकाकीपन ..........
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क्यूँ पूछते हो
मेरा एकाकीपन.................
क्यूँ हैं खाली मेरे अन्तर में
सबसे व्यस्त कोना ....
एक सिसकती ऐसी दास्तान
जिसमे ना पहले और
ना बाद में हैं कुछ पाना
बस खोना ही खोना...
वो बस रह गयी एक ऐसी कहानी, एक पहेली
जिसमे वो ना बन सकी मेरी सहेली
फिर भी मेरी तन्हाई
इस कदर उम्मीद से लबरेज थी
कि कभी आहट पर
कि कभी चाहत पर
वो छन-छन करती
दौड़ती जाती द्वार तक
और पायल तुड़ा कर
घायल पांवों से लौट आती अकेली
लोग सोचते रहे
कि हैं असफल प्रेम का विलाप
बस गया होगा ह्रदय में संताप
यह घटित होता हैं
जब मेरी प्रेमिका -मेरी कविता
नहीं बनती
नहीं संवरती हैं
जब शब्द मुकर जाते हैं
कागज पर उतरने को
और कंठ रुंध जाता
गीतों को वाणी देने को
यह हैं मेरी सृजन-शून्यता
यही हैं मेरा एकाकीपन ..........

रामकिशोर उपाध्याय

Tuesday, 19 November 2013

मैं निराश नहीं हूँ
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अचानक
क्या हुआ
जो ह्रदय मैंने आपसे लिया था 
वह
ग्लेशियर पर पड़े
बर्फ सा तो नहीं था
वह तो स्पंदित था
वह तो जीवंत था
वह तो मेरी हर गर्म सांस से
क्रीड़ा में तल्लीन हो जाता
एक उन्मुक्त परिंदा था
वह तो
मेरी हर आहट  पर
मुझे देखने द्वार तक दौड़ा आता था
मेरे ह्रदय के निकट बैठ
हर दिन नये गीत गुनगुनाता
नित नूतन स्वप्न सजाता
हर रात मिलन की बाट जोहता
बेरोकटोक बाते करता मुझसे
कई सवाल करता था
जीने के
प्रत्येक क्षण
उत्सव से पोषित मस्त
धमनियों में  उदात्त भावों से
अंग-अंग में अविराम अद्भुत  स्फुरण करता
वो इतना निष्ठुर
वो इतना क्लांत
वो इतना शांत
तो कदापि नहीं था
यह वह  ह्रदय तो नहीं
शायद दूरियां से त्रस्त
किसी मांस का लोथड़ा हो
परन्तु मेरा प्रयास रहेगा
यह बर्फ आगामी बसंत से पूर्व
पिघल जाये
और यह ह्रदय
फिर से मेरे लिए
धड़कने लगे..
जीवन में ऋतु-चक्र तो आते रहते हैं
और कम से कम इस स्थिति से
मैं
निराश नहीं हूँ..... 

रामकिशोर उपाध्याय



 शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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आकाश
ने अपनी असमानी नीली
जब छतरी खोली
टिमटिमाते तारे
भरभरा कर गिरते देख
पेड़ों ने अपनी शाखाओं  को कहा
कि जाओ तारों को समेट लो
कल सुबह उन्हें
फूल बनकर खिलना हैं
फिर करना  श्रृंगार
शक्ति का
विरह से तप्त
रमणी का
ओस  से जब फूल भारी हो जाये
तो उनसे कहना
कि वे झरे नहीं
अपितु  नमी को
उत्सर्जित कर अविकल बह जाने दे
झरना बनकर जीवन की प्यास बुझाने हेतु
और फिर लहरे बनकर
वे सागर का हार बन जाये
यह देख विरह में नभ ने  एक ध्वनि निकाली
सागर की शांत लहरे
संकेत पाकर तट से करने लगी ठिठोली
चंचल चन्द्र भी शरारत के मूड में आ गया
चंद्रमा की सोलहवीं कला पूर्ण हो निकली
वह पूर्णिमा की रात थी
लहरे तीव्र हो चली
मानों नभ को दे रही हो
उपनिषद का सन्देश
 पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते,
पूर्णश्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
 शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

रामकिशोर उपाध्याय


Tuesday, 12 November 2013




‘मैं अमर होना नहीं चाहती’

ओंस में 
भीगी हुई पंखुडियां सी लिए 
यह देह ..........
किस देहरी पर धरु 
यहाँ हर ओर ताप और संताप हैं
पुन्य को खोजती-खोजती
हो गयी पापमय
और कल ही ली हैं
शपथ जीने की पोप से
यहाँ के ईश्वर ने
कहलवाया हैं कि देहरी भी
वर्जित हो गयी
हिरन्यकश्यप के वध के उपरांत
अमर तो
होना भी नहीं चाहती मैं .......

रामकिशोर उपाध्याय


























गुलाब
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बहुत प्रयास किया
कि कुछ लिख दूँ
शब्द नहीं मिले ..
पुस्तकें देखी
कुछ शब्द उठाये
कुछ को बिछौना बनाया
कुछ को तकिया
कुछ चादर बनकर फ़ैल गए
फिर भी कुछ बचे रह गए
यह सोचकर उन्हें उपयोग नहीं किया
कि सुबह नाश्ते पर देखेंगे ...
ये बचे शब्द रोने लगे
मैंने कहा रोओ मत ..
जाओ मुक्त हो जाओ
और
तितली बन जाना
कुछ भ्रमर बन जाना
या फिर
कल किसी का श्रंगार बन
जीवन महका देना ..
सुबह ..
देखा तो गुलाब खिले थे
मेरे मन आंगन में .....

रामकिशोर उपाध्याय

Monday, 11 November 2013




जीवन पथ 
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जीवन पथ 
बड़ा ही
सपाट ....
बड़ा ही
सीधा सरल ....
बस बीच-बीच में
कुछ गहरे गड्ढे
कुछ प्यारे -प्यारे मोड़ ............
कहीं बचते-बचाते चलते
कुछ को पार कर जाते
कुछ को जाते छोड़ ................

रामकिशोर उपाध्याय
कल्पना
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ये कल्पना ....
भी बड़ी अजीब होती हैं
बेखौफ ,बेलाग और बेहया
ना समय देखती
ना जगह देखती
ना सामने कौन हैं
ना दाएं बांयें कौन हैं
बस आ जाती हैं
बिन पैरों के
बिन पंखों के
और चलकर
एक घरौंदा
एक नीड के लिए
एक बया की तरह
बस बुनती रहती हैं
समय को
झंझावातों को
निरंतर चुनौती देती हुई.......
कल्पना ..........................

रामकिशोर उपाध्याय 

Thursday, 7 November 2013

के आज बरसों बाद नहाके लटें सुलझाई, 
फिर बिंदी और हथेली पर मेहंदी लगाई,
चूड़ी, कंगन, हार, पांव में पायल सजाई,
छोड़े ना आईना,मेरे आने की खबर जो आई

रामकिशोर उपाध्याय    

सितारों की कृपा -----------------



अब सूरज
ढल रहा हैं
आज भी व्यतीत होकर
कल अतीत हो जायेगा
रात घिर आयेगे
पर ये अँधेरे भी
इतने तो बुरे नहीं
स्वप्न तो बुने जा सकते हैं
इस काल में ............
आज फिर आज दीप जलेंगे
कुछ नरम तंतुओं को छुयेगी 
चांदनी ...
रचेगी एक नूतन कहानी
जो  साकार होगी
आज के कल में
और कल के आज में
यह नभ तो व्यस्त रहेगा
अपने उपहार बांटने में
रोज की तरह
अपने कुरते के बटन बंद कर लो
कोट का गला भी
चाहे तो टाई भी लगा लो ..
पेंट प्रेस करके पहन लो
कमीज का कालर गन्दा नही चलेगा
आकाश के सितारों को
आप चाक-चोबन्द लगने चाहिए
कृपा ...........
देते समय.


रामकिशोर उपाध्याय 
क्यों ?



















क्यों गति अवरुद्ध हैं
इन बहकते कदमों की .....
क्यों जुम्बिश नहीं हैं
इन लरजते होठों पर ......
क्यों कोई जल नहीं रहा हैं
इन दहकती सांसों से ........
क्यों कशिश कम हैं
इन बोलती आँखों में .....
क्यों आनंद-राग का आलाप नहीं हैं  
इस पूरी भाव-भंगिमा में .............
क्यों तार झंकृत नहीं हैं
ह्रदय-वीणा के.........
ये न तो उत्स का क्षण हैं
और अस्त का भी नहीं  
यह एक जीवन काया हैं ,,,,,,,
जो एक पल की माया हैं,,,,,,,,,,,
यह राग है सृष्टि का ,,,,,,
जिसको  
एक शोला भी चाहिए
और एक चिंगारी भी.    


रामकिशोर उपाध्याय 

Tuesday, 5 November 2013


kuch bikhre phool..
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साहिल से मौजें टकराती तो हैं, 
शजरों में हवाएं लहराती तो हैं, 
जुल्म ख़त्म ना हो बेशक*मेरी,
किले से आवाजें टकराती तो हैं. 



कविता लोक में एक लघु प्रयास --एक मुक्तक 
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दर्द जब भी उभरा,
हद तक ही उभरा,
शिकवा क्या*करे, 
वो दिल से*उभरा. 

रामकिशोर उपाध्याय
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खुदा मिला जन्नत के दरवाजे पर,
वो भी मेरी तरह खामोश तन्हा था.


दिवाली के बाद 
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के बाती जल गयी और जल गया सब तेल,
माटी की काया का माटी में मिलने का खेल.

जबतक तम हैं छाया दिवाली का ये सन्देश,
के मिट्टी,बाती और तेल का होता रहेगा मेल. 

रामकिशोर उपाध्याय 
04.11.2013



"शीर्षक अभिव्यक्ति --- 81" (चित्र)- एकल काव्य पाठ –एक साहित्य मंच में प्रस्तुत एक लघु प्रयास 
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“मैं विदेह हूँ” 
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तुमने बड़ी ही
होशियारी से एक बाड़ लगाया
कटीलें नुकीले तारो का............
मेरी आज़ादी को
कैद करने की व्यवस्था का अच्छा ताना-बाना
अरे ! आप भी औरों जैसे निकले......
तुमने भी वही पाश फैंका शकुनी की तरह
पर ये पाश पहले भी पिट चुके हैं
हस्तिनापुर में द्वापर में
शायद भान नहीं हैं
कि इस बाड़ ने द्वार रोका हैं
आशा के झरोखे अभी हैं
मेरा स्थूल बंधन में हो सकता हैं
मेरा सूक्ष्म तो नहीं ............
जो पवन की तरह उन्मुक्त हैं
पावक की तरह उर्ध्व हैं
आकाश की तरह व्यापक हैं
मैं ,,,,
कैद कैसे हो सकता हूँ
यह बात ऊपरवाला भी जानता हैं
तुम्हारे आकलन व्यर्थ
तुम्हारे प्रयास भी व्यर्थ
मैं देह भी हैं ...
व्याकुलता और झंझावातों में
जीने की आशा
और आस्था के साथ
इस बाड़ के पार
मैं विदेह हूँ.............

रामकिशोर उपाध्याय


Saturday, 2 November 2013


















कल दीवाली हैं ...
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दीप ......
बहुत से हैं जले हुए,
कुछ कल जल जायेगे 
युद्ध ......
अंधकार से जारी हैं
और कल भी जारी रहेगा
फिर भी अन्धकार तो मिटा नहीं
तो क्या युद्ध करना छोड़ दे
नहीं ना .......
आज ही खबर आई
एक शहर को दर्पण से आलोकित किया
जो सदियों से अंधकार में था
अर्थात ........
यद्ध करने से विजय प्राप्त होती है....

फिर भी
अपने अंतःकरण
में एक दीप अवश्य
आलोकित करना
अहम् के हनन हेतु
चिंतन मनन हेतु

रामकिशोर उपाध्याय

दो नवम्बर २०१३ 















के दिल में रखा*खाली एक कोना,
उसी में वक़्त बेवक्त हँसना रोना,
नदी जैसी खुशी को वहीँ डुबो देना, 
उसी में समुद्र जैसे दुःख को धोना. 

रामकिशोर उपाध्याय

Friday, 1 November 2013











ये दीप कहाँ रखूं ?
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आज दिवाली हैं
जगमग हैं घर,गली, कुंचा और मेरा गाँव
भर आई हैं दीपों की थाली
हर रंग और रूप से सजे हैं दीप
कुछ मेरी भावना से  
कुछ मेरी कामना से
कुछ मेरी माँ के स्नेह से जले
उन्हें रख लिया मैने आस्था के द्वार पर
कुछ पिता के आशीष से सने
उन्हें रख लिया मैंने विश्वास के द्वार पर
कुछ मेरी संतान के सम्मान से जमे हुए
जिन्हें मैंने रख दिया आत्मविश्वास के द्वार पर
कुछ एक भार्या के प्रेम से भरे-भरे
जिन्हें रख लिया मैंने ह्रदय के द्वार पर
कुछ दीप अभी शेष हैं मेरे संबंधो के
स्वयं के स्वयं से ----
स्वयं के जगत के ----
उनके और अपने----  
जिन्हें मैं घर की देहरी पर रखना चाहता हूँ
फिर आप ही बताओं
कि ये दीप मैं कहाँ रखूं ?.............


रामकिशोर उपाध्याय