Wednesday, 5 June 2013


कैद 
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नहीं  हैं आला कोई यादों को रखने तक का 
कैसी हैं सपाट दर-ओ-दीवार इन महलों में 

नहीं हैं कच्चा फर्श पांव मैले करने तक का 
कैसी है ये दिमागी फितरत   इन महलों में

नहीं हैं  कांच का गिलास फैंकने तक का  
कैसी है इंसानी कैफियत इन  महलो में 

नहीं हैं दाना कबूतर बुलाने तक का
कैसी है दावत-ए-खास इन महलों में  

नहीं हैं पेड़ कोई झुका कूदने तक का 
कैसी हैं गुम नादानियाँ इन महलों में 

नही है पिता सख्त कोई डांटने तक का
कैसी है न्यारी  परवरिश इन महलों में 
   
(C ) रामकिशोर उपाध्याय 

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