Monday, 3 September 2012

ये आदमी भी क्या चीज है





हर दिन अपनी एक इंच  जगह के लिए झगड़ता 
महलों और किलो के ख्वाब बुनता
और उसी भट्टी में पिघलता
जिसमे वो सिक्के बीनता 
नीड़ो और झोपडों में टेक लगता
जिस पानी को पीता,
उसी से बरसात में डरता
आग से भूनता आलू
पर सेक से डरता


जिस लकड़ी की पतवार बनाता
उसी लकड़ी में जल जाता
 मरने के बाद के लिए भी
आटे के गोले कफ़न में रखता
जीते जी घी का दिया भले ना जलाया हो
पर  चिता में घी का डिब्बा फेंकता
लोग राख बनने तक तकते रहते
कही जिन्दा न हो जाये
राख को पानी के हवाले करके
घर लोटते और फिर चूल्हे के पास बैठकर
कई गलियां देते
कई कसीदे पढ़ते
आत्मा तो अजर अमर है
वो जो गया वो भी इधर हैं
ये आदमी भी क्या चीज है 

प्रेम का सीमित उपहार




रवि-रश्मियों का होता है प्रपात 
होता प्रकाशित धरा का  हर कोना 
बिखर जाता नम पत्रों पर सोना  
यही हैं  प्रकृति का  निरंतर दुलार  (१)

नभ कर में थामे उत्तेजित घन को 
थम -थम करने दे झरने थल पर 
नहा उठती सोंधी-सोंधी गंध से धरा 
आती जब निकट वो प्रथम फुहार  (२) 

दिवस होता विदा थामे रजनी हाथ 
सिमट जाती धूप सारी ही हठात 
हो मन प्रफुल्लित या फिर  म्लान
यही  प्रक्रिया, यही नित्य व्यव्हार (३)

स्वप्निल नयनों के उपवन में 
निरंकुश भ्रमर  का मंद पदचाप 
विरह का होता वही प्रचंड अघात 
प्रेम में मिलता है सीमित उपहार (४)