Monday, 3 September 2012

प्रेम का सीमित उपहार




रवि-रश्मियों का होता है प्रपात 
होता प्रकाशित धरा का  हर कोना 
बिखर जाता नम पत्रों पर सोना  
यही हैं  प्रकृति का  निरंतर दुलार  (१)

नभ कर में थामे उत्तेजित घन को 
थम -थम करने दे झरने थल पर 
नहा उठती सोंधी-सोंधी गंध से धरा 
आती जब निकट वो प्रथम फुहार  (२) 

दिवस होता विदा थामे रजनी हाथ 
सिमट जाती धूप सारी ही हठात 
हो मन प्रफुल्लित या फिर  म्लान
यही  प्रक्रिया, यही नित्य व्यव्हार (३)

स्वप्निल नयनों के उपवन में 
निरंकुश भ्रमर  का मंद पदचाप 
विरह का होता वही प्रचंड अघात 
प्रेम में मिलता है सीमित उपहार (४)

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