तुम्हारी ये अनकही
आज ---
पुष्प भी मुरझा रहे हैं बिखरी धूप में,
तारे भी रो रहे हैं छिटकी चांदनी में,
भांपकर
तुम्हारी ये उदासी—
परिन्दे भी बदहवास उड रहें हैं नभ में,
हिरने भी चलरहे हैं सहमें-सहमें बन में,
समझकर
तुम्हारी ये आँखे बुझी ---
भंवरे भी डोल रहे हैं बेखबर उपवन में ,
कोयलें भी बोल रहें हैं उखडें मन सें,
देखकर
तुम्हारी ये बेरूखी—
शब्द भी थम रहे हैं कण्ठ तक ,
भाव भी रूक रहें हैं होंठ तक,
सुनकर
तुम्हारी ये अनकही –
चुभन भी हो रहा हैं तन में,
रूदन भी हो रहा हैं मन में,
सोचकर
तुम्हारी ये बेबसी--
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