Saturday, 13 June 2020

संस्मरण - मेरठ (आरंभिक जीवन भाग -2 )

संस्मरण --पिछली पोस्ट से आगे.
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पिताजी का एक रुपैया ..मेरा सबसे बड़ा भैया
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पिताजी ने शिवकुमार शर्मा जी से कहा कि ठीक है, हम जल्दी ही सामान ले आयेंगे | कहकर हम घर आ गए,किन्तु वहां गए नहीं |फिर पिताजी को अचानक याद आया कि उनका एक भतीजा मेरठ में रहकर नौकरी करता है। फिर सुभाष नगर से सीधे हम उनके घर गए। उन भाई साहब के परिवार में उनकी पत्नी और एक छोटी बेटी थी ।उन्होंने तुरंत हां कर दी | उन्हें भी लगा होगा कि लड़का किसी काम तो आया करेगा ही ,रख लेते हैं | मेरठ आने की तैयारी शुरू हो गयी | गाँव में उस समय बमुश्किल से कोई टिन का संदूक होता था | नए कपड़े ही संदूक की शोभा बढ़ा पाते थे और अलगनी पर लटके पुराने कपड़ों को चिढाते रहते थे | मां की शादी में मिली बावन गज की गोटे वाली घाघरी, रेशमी अंगिया ,टेरालीन की कमीज और ढाका की वायल के पिताजी के दो सफ़ेद कुरते,लट्ठे के पायजामें या सूती मरदाना धोतियाँ (एक दो ही बस ) जैसे घमंडी कपड़ों को कभी -कभी यानि शादी –विवाह,कुआं पूजन ,लगन ,भात आदि के खासम खास मौकों पर शरीर को डेकोरेट करने के संदूक से निकाला जाता था | संदूक में पड़ी नेप्थलीन की गोलियां से गमकते ये कपडे ज्यादा ही नक्शा मारते रहते थे,ठीक वैसे ही जैसे गरीब को देखकर अमीर ऐंठता रहता है | अब मेरा सामान भी महत्वपूर्ण होने जा रहा था | इस सामान के लिए अब घर में पड़ी एक टिन की पुराणी छोटी संदुकडी तलाशी गयी । दो जोड़ी ड्रेस,यानि सफेद कमीज और खाकी जीन की शार्ट पेंट सिलवा ली गयी थी । दो जोड़ी पट्टे के पाजामे और कमीज । गर्मी थी तो वैल (वायल) का सफेद कुर्ता और एक सफेद लट्ठे का पजामा भी रख दिया। दो जोड़ी जुर्राब और एक जोड़ी बाटा के कपड़े वाले जूते भी संदुकडी में सजा लिए गए । एक किलो का एल्युमिनियम वाला लटकाने वाले डिब्बे में देसी घी साथ में माँ ने घर के निकाले मावे के पेड़े भी एक झोले में रख दिये थे।फिर जलाई 1970 के एक इतवार को ये थैला मैंने कंधे पर लटकाया । कपड़े वाली संदुकडी हाथ मे ली और ओढ़ने बिछाने के कपड़े एज चद्दर में बांधकर पिताजी ने पीठ पर रख ली। स्टेशन आये और मेरठ की ट्रेन पकड़ ली।। शहर स्टेशन से रिक्शा ली और भाई साहब के घर पर पिताजी छोड़कर चले गए। जाते जाते जरूरी सलाह भी दे गए। हमारे जीजा जी के सबसे छोटे भाई ज्ञानप्रकाश शर्मा जी जो उस मेरठ नगर पालिका में ओवरसियर (जूनियर इंजीनियर ) थे ,मेरे स्थानीय अभिभावक बने | ज्ञानप्रकाश शर्मा जी उत्तर प्रदेश के विभिन्न जल प्रदाय संस्थानों में काम करते हुए अधिशासी अभियंता के पद से सेवा निवृत्त होकर अब वसुंधरा गाज़ियाबाद में आनंदपूर्वक जीवन बिता रहे है |
भाई साहेब के साथ रहना शुरू करने के एक महीने में ही भाभी जी के व्यवहार के कारण वह जगह भी छोड़नी पड़ी। अब फिर एक नए आशियाने की तलाश शुरू हुई | मेरी दूर की बुआ के चचिया ससुर पंडित हीरालाल जी कृष्णपुरी में एक धर्मशाला के मैनेजर और मंदिर में पुजारी थे। पंडित जी सबके मर्ज की दवा थे। पंडित जी के अपनी कोई औलाद नहीं थी। मगर किसी को रहने ,खाने या पढ़ने के लिए आर्थिक मदद की जरूरत हो,पंडित जी का द्वार खुला रहता था। बारह साल की उम्र में जीवन कुछ अलग किस्म के अनुभवों से गुजर रहा था। किन्तु निराशा बिल्कुल नहीं थी | पंडित जी ने जाते ही तुरंत एक कमरा मुझे दे दिया। उस कमरे में एक और मेरा जैसा ही विद्यार्थी देवेंद्र गौड़ पहले से ही रहता था। उस कमरे में दो चारपाई और दो अलमारी थी ।बस हम दोनों साथ ही रहने लगे। देवेंद्र गौड़ मुझसे एक साल सीनियर था। हमारी रुचियां बिल्कुल अलग । एक दूसरे के साथ वैसे ही रखते थे जैसे नदी की बाढ़ के कारण एक ऊंचे टापू पर शेर,बकरी,सांप ,घोड़ा और हाथी साथ –साथ रहते है और बाढ़ का पानी उतरने का इंतज़ार करते है । पंडित जी मेरे व्यवहार से शीघ्र ही प्रभावित हुए । जीवन में सादगी और सरलता को पिताजी से गृहण कर उनके साथ रहने लगा | उन्होंने मुझे सुबह- सुबह 4 बजे उठा देना। मंदिर में ही एक कुआं था। उससे पानी निकालकर फिर मैं मंदिर की सफ़ाई करता। पानी भी उसी कुएं का निकालकर पीते थे। सफाई के बाद आरती और भोग लगाने के लिये पंडित जी को बता देता। धर्मशाला तीन मंजिल की काफी बड़ी इमारत थी। सुंदर निर्माण किया हुआ था। इसके प्रथम तल पर तीन परिवार किराए पर रहते थे। धर्मशाला के प्रवेश द्वार पर चार बड़ी दुकानें और दो छोटी दुकान बनी हुई थी,जिसके किराए से मंदिर और धर्मशाला की व्यवस्था और पंडित जी को नाम मात्र का वेतन दिया जाता था। धर्मशाला तीन मंजिल की काफी बड़ी इमारत थी। सुंदर निर्माण किया हुआ था।उस जमाने में सराय और धर्मशाला ही मुसाफिरों को ज्यादातर मुफ्त में ही पनाह देते थे। बस उनसे खाट का किराया जो चवन्नी (पच्चीस पैसे )ही लेते थे। इसी आय से पंडित जी जरूरतमंद लोगों की मदद किया करते थे। पंडित जी ने धीरे -धीरे धर्मशाला में आने वाले मुसाफिरों के पंजीकरण और किराया वसूलने का काम मुझे सौपना शुरू किया । यहाँ तक के उनकी अनुपस्थिति में मैं 12-13 साल का बालक अपनी पढ़ाई के साथ साथ धर्मशाला का काम संभालने लगा। फ्री में रहने के कारण मेरे लिये यह जरूरी भी था। किंतु इसमें मुझे पंडित जी का प्रेम ही ज्यादा नज़र आता था। पंडित जी के साथ रहते- रहते उनके लिए अपने लिए चाय और खाना भी बनाना सीख गया। हालांकि पंडित जी को कई यजमान उनका जीमना करते रहते थे। मेरे पिताजी मुझे प्रतिदिन एक रुपये के हिसाब से पैसा देते थे। पास ही मथुरा के थोड़ा कूब वाले पंडित जी का ढाबा था । वहाँ बीस रुपये महीने की दर से खाना तय किया और छुट्टी के पैसे काट लेता था। उनका खाना बड़ा स्वादिष्ट होता था। दाल सब्जी में डालने के लिए एक कटोरी में देसी घी ले जाता था । सोमवार को सुबह –सुबह घर से मेरठ आता और आने वाले शनिवार का इंतजार करता | शनिवार आते ही स्कूल से सीधा घर भाग जाता था और इतवार की शाम की या सोमवार की सुबह वापस मेरठ आ जाता था। साथ मे होता था घी का डिब्बा और माँ के हाथ की बनाई मिठाई । मेरे उस एक रूपये में कभी दस-पांच पैसे के गोलगप्पे खा लिए या कभी केले | एक रूपये में कोई लग्जरी तो कर ही नहीं सकते थे | सच्ची बात कहूँ तो अय्याशियों का क्या होती थी,पता ही नहीं था | स्कूल से घर और घर से स्कूल के सफ़र के साथ यदि कुछ याद था तो थी पिताजी की छोटी सी तन्खवाह और उनकी हम चार भाई-बहनों के प्रति बड़ी –बड़ी जिम्मेदारियां |
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रामकिशोर उपाध्याय
11.06.2020

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