चट्टान
तो कठोर ऊन्नत होगी ही
वारिद
तो धूम्र व्यापक जलयुक्त होगा ही
गगन
तो नीलवर्णी अनंत आच्छादित होगा ही
वायु
तो अल्पभार और गतिमान होगी ही
सागर
तो बृहद तरल होगा ही
सबके अहम को सुनकर धरा बोल पड़ी
विशाल चट्टान
विस्तृत सागर
धूम्रवर्णी मेघ
चंचल पवन
सभी को अपने वक्षस्थल पर धारण करती हूँ
समय पर क्षितिज पर गगन संग रमण करती हूँ
जब मनुज हल से भेदता हूँ मुझे
मैं बस मुस्करा देती हूँ
और प्रकृति से जनन का भार लेकर जिया करती हूँ
फिर भी शांत सहज सरल रहा करती हूँ
क्योंकि मैं धरती हूँ ............
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रामकिशोर उपाध्याय
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज शुक्रवार (10-07-2015) को "सुबह सबेरे त्राटक योगा" (चर्चा अंक-2032) (चर्चा अंक- 2032) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
आ.रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी इस सदाशयता के हार्दिक आभार ...नमन
Deleteरामकिशोर उपाध्याय
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