Thursday, 2 July 2015

सुनो लम्बरदार .



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सत्ता गढ़ रही है तर्क
हो रही है कांव-कांव
यह चौपड़ है नई
मगर पुराने मोहरों पर लगे है दांव
यहीं पर शकुनी भी था कभी
जिसने लेने नही दिए दस गाँव
वह जमाना और था ..
सत्ता के लिए सिर्फ घर में ही शोर था
और प्रजा थी खामोश
राजा रहता था मदहोश
बदली है फ़िज़ाये आज
प्रजा करती है अगर कुछ सवाल
तो गिरने लगते है ताज
हवा भी बहती है
तो जानते है लोग किधर जायेगी
आंधी अगर चल पड़ी
जनता बिफर जायेगी
पुरवाई में उठा है
कुछ बवाल
आ रही है तबेले से आवाज
हो हलाल ,हो हलाल
क्या अब भी रहेगा कोई तटस्थ ..
क्या हो रही है प्रतीक्षा
किसी मुहूर्त की
आज भीष्म ही तो प्रजा है
अयन का उसे नहीं है इंतजार
बार हो रहा है शंखनाद
मगर सुनते कहाँ है लम्बरदार
प्रजा का चैन है तिरोहित
सुनो लम्बरदार ....
*
रामकिशोर उपाध्याय

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